Braj darshan

Image
Welcome to

ब्रज धाम

व्रज समुद्र मथुरा कमल, वृन्दावन मकरंद।
व्रजबनिता सब पुष्प हैं, मधुकर गोकुलचंद॥

निखिल विश्व की आत्मा श्री कृष्ण चराचर प्रकृति के एक मात्र अधीश्वर हैं, समस्त क्रियाओं के कर्ता, भोक्ता और साक्षी भी हैं। वही सर्वव्यापक हैं, अन्तर्यामी हैं। सच्चिदानन्द श्री कृष्ण जी का निज धाम, उनकी बाल लीलाओं का साक्षी एवं उनकी प्रियतमा श्री राधारानी का हृदय है ब्रज धाम। भारत वर्ष में अनेक तीर्थ स्थल जैसे अयोध्या, द्वारिका, चित्रकूट, चार धाम आदि अवस्थित हैं। इन्हीं सब धामों में ब्रज मण्डल अपना अनूठा महत्व रखता है। भक्ति रस में ब्रज रस की माधुरी अनुपमेय है। भगवान श्री कृष्ण ने ब्रज में प्रकट होकर रस की जो मधुरतम धारा प्रवाहित की उसकी समस्त विश्व में कोई तुलना नहीं है। बड़े-बड़े ज्ञानी, योगी, ऋषि मुनि, देवगण सहस्त्र वर्ष प्रभु के दर्शन पाने को तप करते हैं फ़िर भी वो प्रभु का दर्शन प्राप्त नहीं कर पाते हैं वहीं इस ब्रज की पावन भूमि में परम सच्चिदानन्द श्री कृष्ण सहज ही सुलभ हो जाते हैं।

Image

समस्त ब्रज मण्डल को रसिक संतजनों ने बैकुण्ठ से भी सर्वोपरि माना है। इससे ऊपर और कोई भी धाम नहीं है जहाँ प्रभु ने अवतार लेकर अपनी दिव्य लीलायें की हों। इस ब्रज भूमि में नित्य लीला शेखर श्रीकृष्णजी की बांसुरी के ही स्वर सुनाई देते हैं अन्य कोलाहल नहीं। यहाँ तो नेत्र और श्रवणेन्द्रियाँ प्रभु की दिव्य लीलाओं का दर्शन और श्रवण करते हैं। यहाँ के रमणीय वातावरण में पक्षियों का चहकना, वायु से लताओं का हिलना, मोर बंदरों का वृक्षों पर कूदना, यमुना के प्रवाहित होने का कलरव, समस्त ब्रज गोपिकाओं का यमुना से अपनी- अपनी मटकी में जल भर कर लाना और उनकी पैंजनियों की रुनझुन, गोपिकाओं का आपस में हास-परिहास, ग्वालवालों का अपने श्याम सुन्दर के साथ नित्य नयी खेल-लीलाओं को करना, सभी बाल सखाओं से घिरे श्री कृष्ण का बड़ी चपलता से गोपियों का मार्ग रोकना और उनसे दधि का दान माँगना। यमुना किनारे कदम्ब वृक्ष के ऊपर बैठकर बंशी बजाना और बंशी की ध्वनि सुनकर सभी गोपिकाओं का यमुना तट पर दौड़कर आना और लीला करना यही सब नन्द नन्दन की नित्य लीलाएं इस ब्रज में हुई हैं। यहाँ की सभी कुँज-निकुँज बहुत ही भाग्यशाली हैं क्योंकि कहीं प्यारे श्याम सुन्दर का किसी लता में पीताम्बर उलझा तो कहीं किसी निकुँज में श्यामाजू का आँचल उलझा। प्रभु श्री श्याम सुन्दर की सभी निकुँज लीलायें सभी भक्तों, रसिकजनों सन्तों को आनन्द प्रदान करती हैं।

ब्रज का हर वृक्ष देव हैं, हर लता देवांगना है, यहाँ की बोली में माधुर्य है, बातों में लालित्य है, पुराणों का सा उपदेश है, यहाँ की गति ही नृत्य है, रति को भी यह स्थान त्याग करने में क्षति है, कण-कण में राधा-कृष्ण की छवि है, दिशाओं में भगवद नाम की झलक, प्रतिपल कानों में राधे-राधे की झलक, देवलोक-गोलोक भी इसके समक्ष नतमस्तक हैं। सम्पूर्ण ब्रज-मण्डल का प्रत्येक रज-कण, वृक्ष, पर्वत, पावन कुण्ड-सरोवर और श्री यमुनाजी श्रीप्रिया-प्रियतम की नित्य निकुंज लीलाओं के साक्षी हैं। श्री कृष्ण जी ने अपने ब्रह्मत्व का त्याग कर सभी ग्वाल बालों और ब्रज गोपियों के साथ अनेक लीलाएँ की हैं। यहाँ उन्होने अपना बचपन बिताया। जिसमें उन्होने ग्वाल बालों के साथ क्रीड़ा, गौ चारण, माखन चोरी, कालिया दमन आदि अनेक लीलाएँ की हैं। भगवान कृष्ण की इन लीलाओं पर ही ब्रज के नगर, गाँव, कुण्ड, घाट आदि स्थलों का नामकरण हुआ है।

Image
Image
Image

श्री राधा

Image

राधा श्री राधा रटूं, निसि-निसि आठों याम।
जा उर श्री राधा बसै, सोइ हमारो धाम

“ जब-जब इस धराधाम पर प्रभु अवतरित हुए हैं उनके साथ साथ उनकी आह्लादिनी शक्ति भी उनके साथ ही रही हैं। स्वयं श्री भगवान ने श्री राधा जी से कहा है - "हे राधे! जिस प्रकार तुम ब्रज में श्री राधिका रूप से रहती हो, उसी प्रकार क्षीरसागर में श्री महालक्ष्मी, ब्रह्मलोक में सरस्वती और कैलाश पर्वत पर श्री पार्वती के रूप में विराजमान हो।" भगवान के दिव्य लीला विग्रहों का प्राकट्य ही वास्तव में अपनी आराध्या श्री राधा जू के निमित्त ही हुआ है। श्री राधा जू प्रेममयी हैं और भगवान श्री कृष्ण आनन्दमय हैं। जहाँ आनन्द है वहीं प्रेम है और जहाँ प्रेम है वहीं आनन्द है।

आनन्द-रस-सार का धनीभूत विग्रह स्वयं श्री कृष्ण हैं और प्रेम-रस-सार की धनीभूत श्री राधारानी हैं अत: श्री राधा रानी और श्री कृष्ण एक ही हैं। श्रीमद्भागवत् में श्री राधा का नाम प्रकट रूप में नहीं आया है, यह सत्य है। किन्तु वह उसमें उसी प्रकार विद्यमान है जैसे शरीर में आत्मा। प्रेम-रस-सार चिन्तामणि श्री राधा जी का अस्तित्व आनन्द-रस-सार श्री कृष्ण की दिव्य प्रेम लीला को प्रकट करता है। श्री राधा रानी महाभावरूपा हैं और वह नित्य निरंतर आनन्द-रस-सार, रस-राज, अनन्त सौन्दर्य, अनन्त ऐश्‍वर्य, माधुर्य, लावण्यनिधि, सच्चिदानन्द स्वरूप श्री कृष्ण को आनन्द प्रदान करती हैं। श्री कृष्ण और श्री राधारानी सदा अभिन्न हैं। श्री कृष्ण कहते हैं - "जो तुम हो वही मैं हूँ हम दोनों में किंचित भी भेद नहीं हैं। जैसे दूध में श्‍वेतता, अग्नि में दाहशक्ति और पृथ्वी में गंध रहती हैं उसी प्रकार मैं सदा तुम्हारे स्वरूप में विराजमान रहता हूँ।"

श्रीराधा सर्वेश्वरी, रसिकेश्वर घनश्याम। करहुँ निरंतर बास मैं, श्री वृन्दावन धाम॥

वृन्दावन लीला लौकिक लीला नहीं है। लौकिक लीला की दृष्टी से तो ग्यारह वर्ष की अवस्था में श्री कृष्ण ब्रज का परित्याग करके मथुरा चले गये थे। इतनी लघु अवस्था में गोपियों के साथ प्रणय की कल्पना भी नहीं हो सकती परन्तु अलौकिक जगत में दोनों सर्वदा एक ही हैं फ़िर भी श्री कृष्ण ने श्री ब्रह्मा जी को श्री राधा जी के दिव्य चिन्मय प्रेम-रस-सार विग्रह का दर्शन कराने का वरदान दिया था, उसकी पूर्ति के लिये एकान्त अरण्य में ब्रह्मा जी को श्री राधा जी के दर्शन कराये और वहीं ब्रह्मा जी के द्वारा रस-राज-शेखर श्री कृष्ण और महाभाव स्वरूपा श्री राधा जी की विवाह लीला भी सम्पन्न हुई।

गोरे मुख पै तिल बन्यौ, ताहिं करूं प्रणाम। मानों चन्द्र बिछाय कै पौढ़े शालिग्राम॥

रस राज श्री कृष्ण आनन्दरूपी चन्द्रमा हैं और श्री प्रिया जू उनका प्रकाश है। श्री कृष्ण जी लक्ष्मी को मोहित करते हैं परन्तु श्री राधा जू अपनी सौन्दर्य सुषमा से उन श्री कृष्ण को भी मोहित करती हैं। परम प्रिय श्री राधा नाम की महिमा का स्वयं श्री कृष्ण ने इस प्रकार गान किया है-" "जिस समय मैं किसी के मुख से ’रा’ अक्षर सुन लेता हूँ, उसी समय उसे अपना उत्तम भक्ति-प्रेम प्रदान कर देता हूँ और ’धा’ शब्द का उच्चारण करने पर तो मैं प्रियतमा श्री राधा का नाम सुनने के लोभ से उसके पीछे-पीछे चल देता हूँ" ब्रज के रसिक संत श्री किशोरी अली जी ने इस भाव को प्रकट किया है।

आधौ नाम तारिहै राधा।
र के कहत रोग सब मिटिहैं, ध के कहत मिटै सब बाधा॥
राधा राधा नाम की महिमा, गावत वेद पुराण अगाधा।
अलि किशोरी रटौ निरंतर, वेगहि लग जाय भाव समाधा॥

ब्रज रज के प्राण श्री ब्रजराज कुमार की आत्मा श्री राधिका हैं। एक रूप में जहाँ श्री राधा श्री कृष्ण की आराधिका, उपासिका हैं वहीं दूसरे रूप में उनकी आराध्या एवं उपास्या भी हैं। "आराध्यते असौ इति राधा।" शक्ति और शक्तिमान में वस्तुतः कोई भेद न होने पर भी भगवान के विशेष रूपों में शक्ति की प्रधानता हैं। शक्तिमान की सत्ता ही शक्ति के आधार पर है। शक्ति नहीं तो शक्तिमान कैसे? इसी प्रकार श्री राधा जी श्री कृष्ण की शक्ति स्वरूपा हैं। रस की सत्ता ही आस्वाद के लिए है। अपने आपको अपना आस्वादन कराने के लिए ही स्वयं रसरूप श्यामसुन्दर श्रीराधा बन जाते हैं। श्री कृष्ण प्रेम के पुजारी हैं इसीलिए वे अपनी पुजारिन श्री राधाजी की पूजा करते हैं, उन्हें अपने हाथों से सजाते-सवाँरते हैं, उनके रूठने पर उन्हें मनाते हैं। श्रीकृष्ण जी की प्रत्येक लीला श्री राधे जू की कृपा से ही होती है, यहाँ तक कि रासलीला की अधिष्ठात्री श्री राधा जी ही हैं। इसीलिए ब्रजरस में श्रीराधाजी की विशेष महिमा है।

ब्रज मण्डल के कण कण में है बसी तेरी ठकुराई।
कालिन्दी की लहर लहर ने तेरी महिमा गाई॥
पुलकित होयें तेरो जस गावें श्री गोवर्धन गिरिराई।
लै लै नाम तेरौ मुरली पै नाचे कुँवर कन्हाई॥

Image

श्री कृष्ण

भगवान श्री कृष्ण वास्तव में पूर्ण ब्रह्म ही हैं। उनमें सारे भूत, भविष्य, वर्तमान के अवतारों का समावेश है। भगवान श्री कृष्ण अनन्त ऐश्वर्य, अनन्त बल, अनन्त यश, अनन्त श्री, अनन्त ज्ञान और अनन्त वैराग्य की जीवन्त मूर्ति हैं। वे कभी विष्णु रूप से लीला करते हैं, कभी नर-नारायण रूप से तो कभी पूर्ण ब्रह्म सनातन रूप से। सारांश ये है कि वे सब कुछ हैं, उनसे अलग कुछ भी नहीं। अपने भक्तों के दुखों का संहार करने के लिये वे समय-समय पर अवतार लेते हैं और अपनी लीलाओं से भक्तों के दुखों को हर लेते हैं। उनका मनोहारी रूप सभी की बाधाओं को दूर कर देता है।

श्री कृष्ण स्वयं भगवान हैं, अतएव उनके द्वारा सभी लीलाओं का सुसम्पन्न होना इष्ट है।

Image

वे ही सबके हृदयों में व्याप्त अन्तर्यामी हैं, वे ही सर्वातीत हैं और वे ही सर्वगुणमय, लीलामय, अखिलरसामृतमूर्ति श्री भगवान हैं। पुरुषावतार, गुणावतार, लीलावतार, अंशावतार, कलावतार, आवेशावतार, प्रभवावतार, वैभवावतार और परावस्थावतार-सभी उन्हीं से होता है। उनके प्राकट्य में भी विभिन्न कारण हो सकते हैं और वे सभी सत्य हैं। भगवान श्री कृष्ण के प्राकट्य का समय था भाद्रपद अष्टमी की अर्धरात्रि और स्थान था अत्याचारी कंस का कारागार। पर स्वयं भगवान के प्राकट्य से काल, देश आदि सभी परम धन्य हो गये। उस मंगलमयी घटना को हुए पाँच हजार से अधिक वर्ष बीत चुके हैं परन्तु आज भी प्रति वर्ष श्री कृष्ण जी का प्राकट्योत्सव वही पवित्र भाद्रपद मास के पावनमयी कृष्ण पक्ष की मंगल अष्टमी को हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है।

मथुरा नगरी के महाराज उग्रसैन भगवान के भक्त थे, ऋषि-मुनियों की सेवा करना एवं अपनी प्रजा का हमेशा हित चाहना उनके लिये सर्वोपरि था। लेकिन उनका पुत्र कंस बहुत ही अत्याचारी था। प्रजा पर अत्याचार करना, ऋषि-मुनियों के यज्ञ में विघ्न डालना उसको प्रसन्नता प्रदान करता था एवं वह स्वयं को ही भगवान समझता था। एक बार उसने अपने पिता को ही बंदी बना लिया एवं स्वयं मथुरा नगरी का नरेश बन गया और प्रजा पर अत्याचार करने लगा, ऋषि-मुनियों के यज्ञ में विघ्न डालने लगा एवं अपने आपको भगवान कहलवाने के लिये मजबूर करने लगा। कंस ने अपनी बहिन का विवाह वासुदेव जी के साथ कर दिया। तभी भविष्यवाणी हुई कि देवकी का आठवाँ पुत्र ही कंस का काल होगा। इससे भयभीत होकर उसने अपनी बहिन देवकी और वासुदेव जी को कारागार में डाल दिया। मृत्यु के भय से उसने देवकी के छ: पुत्रों को जन्म लेते ही मार दिया। देवकी के सातवे गर्भ को संकर्षण कर योगमाया ने वासुदेव जी की दूसरी पत्‍नि रोहिणीजी के गर्भ में डाल दिया। इसके पश्‍चात् भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की मंगल अष्टमी तिथि को श्री कृष्ण जी ने अवतार लिया। बड़-बड़े देवता तथा मुनिगण आनन्द में भरकर पृथ्वी के सौभाग्य की सराहना करने लगे।

उनके नैन इस भव बाधा से पार लगा देते हैं। इसीलिए तो किन्हीं संत ने कहा है: -

मोहन नैना आपके नौका के आकार
जो जन इनमें बस गये हो गये भव से पार

ब्रज गोपिकायें उनके मनोहारी रूप की प्रशंसा करते हुए कहती हैं : -

आओ प्यारे मोहना पलक झाँप तोहि लेउं
न मैं देखूं और को न तोहि देखन देउं

आ कर लकुटी मुरली गहैं घूंघर वाले केस
यह बानिक मो हिय बसौ, स्याम मनोहर वेस

Image
>
Image
Image

ब्रज चौरासी कोस यात्रा

Image

ब्रज चौरासी कोस की परिकम्मा एक देत ।
लख चौरासी योनि के संकट हरिहर लेत ॥

एक बार नन्दबाबा और यशोदा मैया ने सभी तीर्थ स्थलों के दर्शन-यात्रा पर जाने की इच्छा प्रकट की। तो श्री कृष्ण जी ने उनसे कहा, "मैया, मैं सारे तीर्थों को ब्रज में ही बुला लेता हूँ। तुम ब्रज में ही सभी तीर्थ-स्थलों की दर्शन-यात्रा कर लेना। अतः समस्त तीर्थ ठाकुर जी की आज्ञानुसार ब्रज में निवास करने लगे। ऐसा माना गया है कि ब्रज-धाम की परिक्रमा-यात्रा सर्वप्रथम चतुर्मुख ब्रह्मा जी ने की थी। वत्स हरण के पश्‍चात् उनके अपराध की शान्ति के लिये स्वयं श्रीकृष्ण ने उन्हें ब्रज चौरासी कोस की परिक्रमा करने का आदेश दिया था। तभी से ब्रज यात्रा का सूत्रपात हुआ।

श्री कृष्ण जी के प्रपौत्र श्री वज्रनाभजी द्वारा भी ब्रज यात्रा की गयी थी। कालांतर में परम रसिक संत शिरोमणि श्री स्वामी हरिदासजी, श्री हरिवंश जी, श्रीवल्लभाचार्य जी, श्री हरिराम व्यास जी, श्री चैतन्य महाप्रभु जी आदि अनेक वैष्णव एवं गौड़ीय सम्प्रदाय आचार्यों द्वारा ब्रज यात्रा का सुत्र पात हुआ जिसे आज भी लाखों भक्त प्रतिवर्ष करते हैं। ब्रज चौरासी कोस की यात्रा करने से मनुष्य को चौरासी लाख योनियों से छुटकारा मिल जाता है।

ब्रज शब्द का अर्थ एवं क्षेत्र

सत्य, रज, तम इन तीनों गुणों से अतीत जो पराब्रह्म है, वही व्यापक है। इसीलिए उसे ही ब्रज कहते हैं। यह सच्चिदानन्द स्वरूप परम ज्योतिर्मय और अविनाशी है। वेदों में भी ब्रज शब्द का प्रयोग हुआ है। "व्रजन्ति गावो यस्मिन्नति ब्रज:" अर्थात् गौचारण की स्थली ही ब्रज कहलाती है। हरिवंश पुराणानुसार मथुरा के आस-पास की स्थली को ब्रज की संज्ञा दी गयी है। अष्टछाप के कवियों ने ब्रज शब्द को गोचारण, गोपालन तथा गौ और ग्वालों के विहार स्थल के रूप में वर्णित किया है। ब्रज में उत्तर प्रदेश का मथुरा जिला, राजस्थान के भरतपुर जिले की डीग और कामां तहसील एवं हरियाणा के फ़रीदाबाद जिले की होडल तहसील आती है।

ब्रज की महिमा

हमारे देश की पवित्र भूमि ब्रज का स्मरण करते ही हृदय प्रेम रस से सराबोर हो जाता है, एवं श्री कृष्ण के बाल रूप की छवि मन-मस्तिष्क पर अंकित होने लगती है। ये ब्रज की महिमा है की सभी तीर्थ स्थल भी ब्रज में निवास करने को उत्सुक हुए थे एवं उन्होने श्री कृष्ण से ब्रज में निवास करने की इच्छा जताई। ब्रज की महिमा का वर्णन करना बहुत कठिन है क्योंकि इसकी महिमा गाते गाते ऋषि-मुनि भी तृप्त नहीं होते। भगवान श्री कृष्ण द्वारा वन गोचारण से ब्रज रज का कण-कण कृष्णरूप हो गया है तभी तो समस्त भक्त जन यहाँ आते हैं और इस पावन रज को शिरोधार्य कर स्वयं को कृतार्थ करते हैं। ब्रज में तो विश्‍व के पालनकर्ता माखनचोर बन गये। इस सम्पूर्ण जगत के स्वामी को ब्रज में गोपियों से दधि का दान लेना पड़ा। जहाँ सभी देव, ऋषि मुनि, ब्रह्मा, शंकर आदि श्री कृष्ण की कृपा पाने हेतु वेद-मंत्रों से स्तुति करते हैं, वहीं ब्रजगोपियों की तो गाली सुनकर ही कृष्ण उनके ऊपर अपनी अनमोल कृपा बरसा देते हैं। रसखान ने ब्रज रज की महिमा बताते हुए कहा है - "एक ब्रज रेणुका पै चिन्तामनि वार डारूँ"

वास्तव में महिमामयी ब्रजमण्डल की कथा अकथनीय है क्योंकि यहाँ श्री ब्रह्मा जी, शिवजी, ऋषि-मुनि, देवता आदि तपस्या करते हैं। श्रीमद्भागवत के अनुसार श्री ब्रह्मा जी कहते हैं-भगवान्! मुझे इस धरातल पर विशेषतः गोकुल में किसी साधारण जीव की योनि मिल जाय, जिससे मैं वहाँ की चरण-रज से अपने मस्तक को अभिषिक्त करने का सौभाग्य प्राप्त कर सकूँ।

भगवान शंकर जी को भी यहाँ गोपी बनना पड़ा -
"नारायण ब्रजभूमि को, को न नवावै माथ, जहाँ आप गोपी भये श्री गोपेश्वर नाथ।
सूरदास जी ने लिखा है "जो सुख ब्रज में एक घरी, सो सुख तीन लोक में नाहीं"।
बृज की ऐसी विलक्षण महिमा है कि स्वयं मुक्ति भी इसकी आकांक्षा करती है -
मुक्ति कहै गोपाल सौ मेरि मुक्ति बताय।
ब्रज रज उड़ि मस्तक लगै मुक्ति मुक्त हो जाय॥

श्री कृष्ण जी उद्धव जी से कहते हैं
"’ऊधौ मोहि ब्रज बिसरत नाहीं।
हंस-सुता की सुन्दर कगरी, अरु कुञ्जनि की छाँहीं। ग्वाल-बाल मिलि करत कुलाहल, नाचत गहि - गहि बाहीं॥
यह मथुरा कञ्चन की नगरी, मनि - मुक्ताहल जाहीं। जबहिं सुरति आवति वा सुख की, जिय उमगत तन नाहीं॥
अनगन भाँति करी बहु लीला, जसुदा नन्द निबाहीं। सूरदास प्रभु रहे मौन ह्‍वै, यह कहि - कहि पछिताहीं॥

Image

वृन्दावन धाम

वृन्दावन धाम कौ वास भलौ, जहाँ पास बहै यमुना पटरानी।
जो जन न्हाय के ध्यान करै, बैकुण्ठ मिले तिनको रजधानी॥

ब्रज का हृदय श्रीवृन्दावन धाम श्री प्रिया-प्रियतम की नित्य नवरस केलि से आच्छादित है। यहाँ की पावन भूमि नित्य नव कुँज, पुष्प, लताओं से घिरी रहती है। यमुना जी के पावन किनारों पर कदम्ब, तमाल आदि के वृक्ष बल्लरियाँ श्री युगल सरकार की नित्य लीलाओं को प्रकट कराने के लिये आतुर रहते हैं और यही विचार करते रहते हैं कि कब प्यारे श्याम सुन्दर आयें और हमें भी अपनी लीलाओं का प्रतिभागी बनायें। यहाँ के वन-उपवन, कुँज-निकुँज, कुण्ड-सरोवर, यमुना के पावन तट आदि श्याम सुन्दर की लीलाओं के प्रत्यक्ष साक्षी हैं। श्रीवृन्दावन प्रभु के गोलोक धाम का ही प्रतिबिम्ब है।

Image

यह नित्य निरंतर शास्वत है। इस नित्य लीला धाम के प्रकट होने पर श्री प्रिया-प्रियतम आ विराजते हैं-अपने दिव्य रस से अभिसिंचित परिवेष में अपनी रासेश्वरी प्रियाजू एवं प्रिय सखियों सहित अपनी विभिन्न लीलायें सम्पन्न करते हैं। इन लीलाओं का परिपूर्ण वर्णन शब्दों में व्यक्त करना बहुत कठिन हैं, क्योंकि इन्हें तो अपने मन को एकाग्र कर प्रभु की इन चिन्मय लीलाओं में खोकर इस रस को नेत्रों से पान किया जाता है और कानों से सुना जाता है।

सभी गोकुलवासी कंस के आतंक से भयभीत थे। तब गोप उपनन्द जी ने सुझाव दिया कि यमुना के पार एक सुन्दर वृन्दावन है जहाँ अनेक वृक्ष, वन, पावन यमुना, गोवर्धन पर्वत आदि हैं। यह स्थान हमारे लिये तो सुरक्षित है ही, हमारी गायों के लिये भी विचरण करने हेतु यहाँ अनेक वन हैं। सभी गोकुलवासी इस पर सहमत हो गये और उन्होंने वृन्दावन को अपना निवास स्थल बनाया। गोवर्धन, बरसाना, नन्दगाँव आदि भी वृन्दावन की परिसीमा में आते थे।

धन वृन्दावन धाम है, धन वृन्दावन नाम। धन वृन्दावन रसिक जो सुमिरै स्यामा स्याम।

श्रीकृष्ण जी ने कहा है - वृन्दावन मेरा निज धाम है। इस वृन्दावन में जो समस्त पशु, पक्षी, मृग, कीट, मानव एवं देवता गण वास करते हैं वे मेरे ही अधिष्ठान में वास करते हैं और देहावसान के बाद सब मेरे धाम को प्राप्त होते हैं। वृन्दावन के वृक्ष साक्षात कल्पतरु हैं यहाँ की भूमि दर्पण के समान एवं मन्दिर, गौशाला स्थानों की भूमि तो चिन्तामणि स्वरूप, सर्व अभिलाषाओं की पूर्ति करने में समर्थ है।

वृन्दावन के वृक्ष को मरहम न जाने कोय, यहाँ डाल डाल और पात पात श्री राधे राधे होय।

वृन्दावन की छवि प्रतिक्षण नवीन है। आज भी चारों ओर आराध्य की आराधना और इष्ट की उपासना के स्वर हर क्षण सुनाई देते हैं। कोई भी अनुभव कर सकता है कि वृन्दावन की सीमा में प्रवेश करते ही एक अदृश्य भाव, एक अदृश्य शक्ति हृदय स्थल के अन्दर प्रवेश करती है और वृन्दावन की परिधि छोड़ते ही यह दूर हो जाती है।

अष्टछाप कवि सूरदास जी ने वृन्दावन रज की महिमा के वशीभूत होकर गाया है-

हम ना भई वृन्दावन रेणु,
तिन चरनन डोलत नंद नन्दन नित प्रति चरावत धेनु।
हम ते धन्य परम ये द्रुम वन बाल बच्छ अरु धेनु।
सूर सकल खेलत हँस बोलत संग मध्य पीवत धेनु॥

Image
>
Image
Image

वृन्दावन धाम के दर्शनीय स्थल

निधिवन : श्री राधारानी की अष्ट सखियों में प्रधान श्री ललिता सखी जी के अवतार रसिक संत संगीत शिरोमणि श्री स्वामी हरिदास जी महाराज की यह साधना स्थली है। श्री स्वामी हरिदास जी नित्य यमुना स्नान करके यहीं पर प्रिया-प्रियतम की साधना किया करते थे। यहीं पर उन्होंने श्री बाँके बिहारी जी महारज को प्रकट किया। यह स्थली आज भी वृन्दावन के प्राचीन रूप को संजोये है। यहाँ पर श्री प्रिया-प्रियतम आज भी रात्रि में रास रचाते हैं। यहाँ श्री स्वामी हरिदास जी की समाधि, रंग महल, बाँके बिहारी जी का प्राकट्य स्थल, राधा रानी बंशी चोर आदि दर्शनीय हैं। सम्राट अकबर ने तानसेन के साथ यहाँ स्वामी हरिदास जी महारज के दर्शन किये थे, एवं स्वामी श्रीहरिदास जी ने अकबर के अहंकार को भंग किया था।

बाँके बिहारी मन्दिर : यह वृन्दावन का सबसे प्रमुख मन्दिर है। श्री बाँके बिहारी जी के दर्शन करे बिना तो वृन्दावन की यात्रा भी अधूरी रह जाती है। श्री बाँके बिहारी जी को स्वामी श्री हरिदास जी महारज ने निधिवन में प्रकट किया था। पहले बिहारी जी की सेवा निधिवन में ही होती थी। वर्तमान मन्दिर का निर्माण सन् 1864 में सभी गोस्वमियों के सहयोग से कराया गया। तब से श्री बाँके बिहारी जी महाराज इसी मन्दिर में विराजमान हैं। यहाँ पर मंगला आरती साल में सिर्फ़ एक बार जन्माष्टमी के अवसर पर होती है। अक्षय तृतीया पर चरण दर्शन, ग्रीष्म ऋतु में फ़ूल बंगले, हरियाली तीज पर स्वर्ण-रजत हिण्डोला, जन्माष्टमी, शरद पूर्णिमा पर बंशी एवं मुकुट धारण, बिहार पंचमी, होली आदि उत्सवों पर विशेष दर्शन होते हैं।

राधा वल्लभ मन्दिर : यह वृन्दावन का प्राचीन एवं प्रसिद्ध मन्दिर है। इसमें श्री हित हरिवंश द्वारा सेवित श्री राधावल्लभ जी के दर्शन हैं। श्री हितहरिवंश ने विवाह के समय दहेज के रूप में श्री राधावल्लभ विग्रह को प्राप्त किया था। "राधावल्लभ दर्शन दुर्लभ" यह उक्ति ही पर्याप्त है श्री राधावल्लभ जी की प्रेम तथा लाड़ से भरी जानकारी के लिए। जिस प्रेम भाव तथा कोमलता से इनकी सेवा पूजा होती है वह देखते ही बनती है। ये ठाकुर अपनी बाँकी छवि से सबको मोहित कर रहे हैं। यहाँ पर सात आरती एवं पाँच भोग वाली सेवा पद्धति का प्रचलन है। यहाँ के भोग, सेवा-पूजा श्री हरिवंश गोस्वामी जी के वंशजों द्वारा सुचारू रूप से की जाती है। यहाँ पर समाज गायन, व्याहुला उत्सव एवं खिचड़ी महोत्सव विशेष हैं।

श्रीनृसिंह मन्दिर : श्री राधावल्लभ घेरे के प्रवेश द्वार के पास ही प्राचीन श्री नृसिंह जी भगवान् का मन्दिर है। नृसिंह चतुर्दशी के दिन शाम को यहाँ हिरण्यकशिपु वध की लीला का आयोजन होता है।

सेवा कुँज : गोस्वामी हित हरिवंश द्वारा प्रकट किये गये लीला स्थलों में सेवा कुंज का विशेष स्थान है। यहाँ एक छोटे से मन्दिर में श्रीराधिका के चित्रपट की पूजा होती है, चित्र में श्री कृष्ण राधाजू के चरणों की सेवा कर रहे हैं। साथ में ही ललिता और विशाखा सखी के भी दर्शन हैं। आज भी श्री राधा-माधव यहाँ विहार करते हैं अतः रात्रि काल में कोई भी भक्त अन्दर प्रवेश नहीं करता यहाँ तक कि बन्दर, पक्षी भी स्वतः ही बाहर निकल जाते हैं। रसखान ने अपने पद में यहाँ की झाँकी का वर्णन इस प्रकार किया है-"देख्यो दुरयो वह कुंज कुटीर में, बैठयो पलोटत राधिका पायन"। यहाँ ललिता कुण्ड है जिसे रासलीला के समय ललिता जी को प्यास लगने पर श्रीकृष्ण जी ने अपनी मुरली से प्रकट किया।

राधा दामोदर मन्दिर: इस मन्दिर में श्री राधा दमोदर जी महाराज के दर्शन है। इनके साथ सिंहासन में श्री वृन्दावन चन्द, श्री छैलचिकनिया, श्री राधाविनोद और श्री राधामाधव के विग्रह विराजमान हैं। सनातन गोस्वामी जी गोवर्धन की नित्य परिक्रमा करते थे। वृद्धावस्था में जब वे परिक्रमा करने में असमर्थ हो गये तब श्री कृष्ण ने बालक रूप में उनको दर्शन दिये तथा उन्हें गोवर्धन शिला प्रदान कर उसी की चार परिक्रमा करने का आदेश दिया। उस शिला में श्री कृष्ण जी का चरण चिह्न, गाय के खुर का चिह्न एवं बंशी का चिह्न अंकित है। सनातन गोस्वामी जी के तिरोभाव के पश्चात् श्री जीव गोस्वामी ने इस शिला को श्री राधा-दामोदर मन्दिर में प्रतिष्ठित किया। इस मन्दिर की चार परिक्रमा देने पर गोवर्धन की परिक्रमा का फ़ल मिलता है।

राधा रमण मन्दिर : श्री राधा रमण जी का मन्दिर श्री गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय के सुप्रसिद्ध मन्दिरों में से एक है। श्री गोपाल भट्ट जी शालिग्राम शिला की पूजा करते थे। एक बार उनकी यह अभिलाषा हूई की शालिग्राम जी के हस्त-पद होते तो मैं इनको विविध प्रकार से सजाता एवं विभिन्न प्रकार की पोशाक धारण कराता। भक्त वत्सल श्री कृष्ण जी ने उनकी इस मनोकामना को पूर्ण किया एवं शालिग्राम से श्री राधारमण जी प्रकट हुए। श्री राधा रमण जी के वामांग में गोमती चक्र सेवित है। इनकी पीठ पर शालिग्राम जी विद्यमान हैं।

श्रीराधा श्याम सुन्दर मन्दिर : सन् 1578 की बसंत पंचमी को श्रीराधा रानी जी ने अपने हृदय-कमल से श्री श्याम सुन्दर जी को प्रकट करके अपने परम भक्त श्री श्यामा नन्द प्रभु को प्रदान किया था। सम्पूर्ण विश्व में श्री श्याम सुन्दर जी ही एक मात्र ऐसे श्री विग्रह हैं जो श्री राधा रानी जी के हृदय से प्रकट हुए हैं। कार्तिक मास में प्रतिदिन यहाँ भव्य झाँकियों के दर्शन होते हैं।

श्री गोविन्द देव जी मन्दिर : यह वृन्दावन का ईंट-पत्थरों का बना प्रथम मन्दिर है। श्री गोविन्द देव जी का विग्रह श्री रूप गोस्वामी जी को गोमा टीला से मिला था। इस मन्दिर का निर्माण गौड़ीय गोस्वामी श्री रघुनाथ भट्ट के शिष्य जयपुर नरेश श्री मानसिंह ने संवत 1647 में कराया था। औरंगजेब के शासन काल में इस मन्दिर की ऊपरी मंजिलों को तोड़ दिया गया था। इसी कारण गोविन्द देव जी के विग्रह को जयपुर में राजा मानसिंह के राजभवन में ले जाया गया जहाँ वह आज भी दर्शनीय हैं। सन् 1748 ई० में पुनः श्री गोविन्द देव जी के प्रतिभू विग्रह की यहाँ स्थापना हूई एवं संवत 1877 में बंगाल के भक्त श्री नंदकुमार वसु ने वर्तमान मन्दिर का निर्माण कराया। यहाँ पर गोविन्द देव जी और उनके वाम भाग में श्री राधा जी विराजमान हैं। गोविन्द देव जी मन्दिर के पास ही श्री सिंहपौर हनुमान जी का मन्दिर है।

श्री मदन मोहन जी: यह मन्दिर आदित्य टीला पर स्थित है। प्राचीन मन्दिर का निर्माण राम दास कपूर द्वारा श्री सनातन गोस्वामी जी की प्रेरणा से कराया गया। मुगल शासकों के मन्दिरों पर हमलों के कारण श्री मदन मोहन जी को करौली में विराजमान कर दिया गया। आज भी वे करौली में ही सेवित हैं। पुनः इस मन्दिर का निर्माण नन्दकुमार वसु ने कराया। पुरी के राजा प्रताप रुद्र के पुत्र श्री पुरुषोत्तम ने अति सुन्दर श्री राधा एवं श्री ललिता जी के विग्रह वृन्दावन भेजे। श्री राधा जी को श्रीमदन मोहन जी के वामांग में एवं श्री ललिता जी को दाहिने भाग में प्रतिष्ठित कर दिया गया। ये सभी आज भी इस मन्दिर में सेवित हैं।

कृष्ण-बलराम मन्दिर(इस्कॉन) : यह मन्दिर वृन्दावन-छटीकरा मार्ग पर स्थित है। इसका निर्माण श्री ए०सी० भक्तिवेदान्त स्वामी द्वारा गठित अन्तर्राष्ट्रीय श्री कृष्णभावनामृत संघ के तत्वावधान में सन् 1975 में हुआ। प्रभुपाद के अनेक विदेशी शिष्यों की देखभाल में सेवापूजा की समस्त व्यवस्था रहने से यह अंग्रेज मन्दिर नाम से प्रसिद्ध हो गया। गर्भ-मन्दिर में तीन कक्ष हैं। मध्य कक्ष में श्री कृष्ण-बलराम के बहुत ही सुन्दर विग्रह हैं। बायीं ओर श्रीनिताई-गौरांग महाप्रभु सेवित हैं। दायें कक्ष में श्री राधा-श्यामसुन्दर युगल किशोर अपनी प्रियतमा सखी ललिता-विशाखा के साथ सुशोभित हैं।

श्री रंगनाथ जी मन्दिर : श्री वृन्दावन का यह सबसे विशाल मन्दिर है। दक्षिण शैली के इस वैभवशाली मन्दिर का निर्माण सेठ श्री राधाकृष्ण, उनके बड़े भाई सेठ लक्ष्मीचन्द्र तथा उनके छोटे भाई सेठ गोविन्द दास जी ने अपने गुरु की प्रेरणा से कराया था। मूल मन्दिर में श्री रंगनाथ जी विराजमान हैं, लक्ष्मी जी उनके चरणों की सेवा कर रही हैं। सोने का साठ फुट ऊँचा खम्भा, सोने की मूर्तियाँ, विशाल रथ दर्शनीय है। चैत्र मास में यहाँ पर भव्य मेले का आयोजन होता है जिसमें एक दिन रंगनाथ जी रथ में सवार होते हैं।

शाह जी का मन्दिर: : यह टेड़े खम्भे वाले मन्दिर के नाम से प्रसिद्ध है। मन्दिर का निर्माण लखनऊ के कुन्दनलाल शाह जी ने कराया। इस मन्दिर में श्री राधा-रमण के विग्रह सेवित हैं। इस मन्दिर में संगमरमर के टेड़े खम्भे आकर्षित करते हैं। बसंत पंचमी पर भव्य बसंती कमरा दर्शनीय है।

गोपेश्‍वर महादेव : जब श्री कृष्ण महारास कर रहे थे, तो महादेव जी को इस दिव्यलीला को देखने की इच्छा हुई। लेकिन महारास में किसी भी पुरुष का प्रवेश वर्जित था। उल्लेखनीय है कि ब्रज की रसिक उपासना में श्री कृष्ण जी ही एक मात्र पुरुष हैं अन्य सभी सखियाँ। अतः शंकर जी ने अष्ट सखियों में प्रधान श्री ललिता सखी जी से गोपी बनने की दीक्षा ली। शंकर जी यहाँ गोपी रूप में विराजमान हैं। श्री गणेश जी, पार्वती जी, श्री नन्दीश्वर जी आदि साथ में विराजमान हैं।

कालीदह : यमुना जी में कालियानाग का एक कुण्ड था। उसका जल विष के कारण खौलता रहता था। उस विषैले जल के कारण, वृक्ष, गाय, पशु-पक्षी आदि सभी मर जाते थे। जब श्री कृष्ण ने देखा कि मेरी रमण स्थली को यह दुष्ट दूषित कर रहा है, तो श्री कृष्ण ने कदम्ब वृक्ष पर चढ़कर यमुना में छलांग लगा दी। श्री कृष्ण के चरणों की चोट से कालिया नाग की सारी शक्ति क्षीण हो गयी जिससे कालिया नाग श्री कृष्ण के शरणागत हो गया। अपनी शरण में आये कालिया नाग पर कृपा कर श्री कृष्ण ने उसे समुद्र में जाने का आदेश दिया।

केशीघाट : श्री कृष्ण ने यहाँ केशीदैत्य का वध किया था। यहाँ पर यमुना जी का मन्दिर भी स्थित है। नित्य सायं यहाँ यमुना जी की आरती होती है।

अक्रूर घाट : अक्रूर जी कृष्ण और बलरामजी को वृन्दावन से मथुरा ले जा रहे थे। तो उन्होंने रास्ते में रथ को रोककर श्री कृष्ण-बलराम जी से कहा कि मैं अभी यमुना स्नान और संध्या करके आता हूँ। जब अक्रूर जी ने यमुना जी में डुबकी लगाई तो उन्हें यमुना के अन्दर कृष्ण-बलराम जी के दर्शन हुए। उन्होंने बाहर रथ में दोनों को सवार देखा तो उन्हें ये अपना भ्रम लगा। लेकिन जैसे ही उन्होंने दोबारा डुबकी लगायी तो उन्हें श्री कृष्ण के विराट रूप के दर्शन हुए।

Image

वृन्दावन धाम की महिमा

धन-धन वृन्दावन रजधानी।
जहाँ विराजत मोहन राजा श्री राधा महारानी।
सदा सनातन एक रस जोरी महिमा निगम ना जानी।
श्री हरि प्रिया हितु निज दासी रहत सदा अगवानी॥

वृन्दावन ब्रज का हृदय है जहाँ प्रिया-प्रियतम ने अपनी दिव्य लीलायें की हैं। इस दिव्य भूमि की महिमा बड़े-बड़े तपस्वी भी नहीं समझ पाते। ब्रह्मा जी का ज्ञान भी यहाँ के प्रेम के आगे फ़ीका पड़ जाता है। वृन्दावन रसिकों की राजधानी है यहाँ के राजा श्यामसुन्दर और महारानी श्री राधिका जी हैं। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है कि वृन्दावन का कण-कण रसमय है। वृन्दावन श्यामसुन्दर की प्रियतमा श्री राधिका जी का निज धाम है। सभी धामों से ऊपर है ब्रज धाम और सभी तीर्थों से श्रेष्ठ है श्री वृन्दावन। इसकी महिमा का बखान करता एक प्रसंग---

भगवान नारायण ने प्रयाग को तीर्थों का राजा बना दिया। अतः सभी तीर्थ प्रयागराज को कर देने आते थे। एक बार नारद जी ने प्रयागराज से पूँछा-"क्या वृन्दावन भी आपको कर देने आता है?" तीर्थराज ने नकारात्मक उत्तर दिया। तो नारद जी बोले-"फ़िर आप तीर्थराज कैसे हुए।" इस बात से दुखी होकर तीर्थराज भगवान के पास पहुँचे। भगवान ने प्रयागराज के आने का कारण पूँछा। तीर्थराज बोले-"प्रभु! आपने मुझे सभी तीर्थों का राजा बनाया है। सभी तीर्थ मुझे कर देने आते हैं, लेकिन श्री वृन्दावन कभी कर देने नहीं आये। अतः मेरा तीर्थराज होना अनुचित है।" भगवान ने प्रयागराज से कहा-"तीर्थराज! मैंने तुम्हें सभी तीर्थों का राजा बनाया है। अपने निज गृह का नहीं। वृन्दावन मेरा घर है। यह मेरी प्रिया श्री किशोरी जी की विहार स्थली है। वहाँ की अधिपति तो वे ही हैं। मैं भी सदा वहीं निवास करता हूँ। वह तो आप से भी ऊपर है।

एक बार अयोध्या जाओ, दो बार द्वारिका, तीन बार जाके त्रिवेणी में नहाओगे।
चार बार चित्रकूट, नौ बार नासिक, बार-बार जाके बद्रिनाथ घूम आओगे॥
कोटि बार काशी, केदारनाथ रामेश्वर, गया-जगन्नाथ, चाहे जहाँ जाओगे।
होंगे प्रत्यक्ष जहाँ दर्शन श्याम श्यामा के, वृन्दावन सा कहीं आनन्द नहीं पाओगे॥

Image
Image
Image

मथुरा

Image

भारतवर्ष में अयोध्या, मथुरा, काशी, काञ्ची, माया, अवन्ती, द्वारावती-ये मोक्ष प्रदाता सात पुरियाँ हैं। इन सभी पुरियों में मथुरा पुरी का विशेष महत्व है। क्यों न हो यहाँ पर स्वयं सच्चिदानन्द प्रभु श्री कृष्ण जी ने अवतार लिया है। प्रभु श्री कृष्ण के सुदर्शन चक्र से रक्षित इस मथुरा पुरी का महत्व बैकुण्ठ से भी अधिक माना गया है, क्योंकि इस भूमि पर किसी भी प्रकार के प्रलय आदि विकारों का प्रभाव नहीं होता। मथुरा पुरी अति प्राचीन है। त्रेता युग में भगवान श्री राम के अनुज शत्रुघ्न जी द्वारा दैत्यराज मधु के पुत्र लवणासुर का संहार करके सभी मथुरावासियों को भयमुक्त किया।

वहीं द्वापर युग में कंस के कारागार में श्री कृष्ण ने देवकी के गर्भ से प्रकट होकर इस नगर की महिमा को सम्पूर्ण विश्व में प्रकाशित किया। श्री मद्‍भागवत के रचियता श्री व्यास जी का ब्रज से सम्बंध सर्वविदित है। श्री कृष्ण गंगा तीर्थ जो आज भी मथुरा में स्थित है, व्यास जी की तप स्थली रहा है। द्वापर में श्री कृष्ण की जन्मादि विविध लीलाओं की स्थली होने का गौरव भी इसे प्राप्त है। मथुरा नगरी में अनेक उतार-चढ़ाव आये परन्तु आज भी यमुना किनारे स्थित इस नगरी का सौन्दर्य, रमणीय वन, पतित पावनी यमुना जी के घाट एवं विभिन्न राजा और धनियों के महल और मन्दिर इस नगरी की शोभा बढ़ा रहे हैं। इस भूमि का श्री कृष्ण जी के साथ शाश्वत सम्बंध इसीलिये भी अधिक है कि उनकी पटरानी श्री यमुना जी साक्षात कल-कल करती अपने दिव्य घाटों पर आज भी बह रही हैं।

Image

श्री गिरिराज जी

कछु माखन कौ बल बढ़ौ, कछु गोपन करी सहाय
श्री राधे जू की कृपा से गिरिवर लियौ उठाय

श्री गोवर्धन मथुरा से 22 किमी० की दूरी पर स्थित है। पुराणों के अनुसार श्री गिरिराज जी को पुलस्त्य ऋषि द्रौणाचल पर्वत से ब्रज में लाये थे। दूसरी मान्यता यह भी है कि त्रेता युग में दक्षिण में जब राम सेतुबंध का कार्य चल रहा था तो हनुमान जी इस पर्वत को उत्तराखंड से ला रहे थे। लेकिन सेतु बन्ध का कार्य पूर्ण होने की देव वाणी को सुनकर हनुमान जी ने इस पर्वत को ब्रज में स्थापित कर दिया। इससे गोवर्धन पर्वत बहुत द्रवित हुए और उन्होंने हनुमान जी से कहा कि मैं श्री राम जी की सेवा और उनके चरण स्पर्श से वंचित रह गया। यह वृतांत हनुमानजी ने श्री राम जी को सुनाया तो राम जी बोले द्वापर युग में मैं इस पर्वत को धारण करुंगा एवं इसे अपना स्वरूप प्रदान करुंगा।

Image

भगवान श्री कृष्ण बलराम जी के साथ वृन्दावन में रहकर अनेकों प्रकार की लीलाएँ कर रहे थे। उन्होंने एक दिन देखा कि वहाँ के सब गोप इन्द्र-यज्ञ करने की तैयारी कर रहे हैं। भगवान श्री कृष्ण सबके अन्तर्यामी और सर्वज्ञ हैं उनसे कोई बात छिपी नहीं थी। फ़िर भी विनयावनत होकर उन्होंने नन्दबाबा से पूँछा- "बाबा आप सब जे का कर रहे हो? ।" तो नन्दबाबा और सभी ब्रजवासी बोले - "लाला, हम इन्द्र की पूजा करवे की तैयारी कर रहे हैं। वो ही हमें अन्न, फ़ल आदि देवै।" इस पर कन्हैया ने सभी ब्रजवासियों से कहा - "अन्न, फ़ल और हमारी गायों को भोजन तो हमें जे गोवर्धन पर्वत देवै। तुम सब ऐसे इन्द्र की पूजा काहे कू करौ। मैं तुम सबन ते गोवर्धन महाराज की पूजा कराउंगो जो तुम्हारे सब भोजन, पकवान आदिन कू पावैगो और सबन कू आशीर्वाद भी देवैगौ।" इस पर सभी ब्रजवासी और नंदबाबा कहने लगे - लाला! हम तो पुराने समय ते ही इन्द्र कू पूजते आ रहे हैं और सभी सुखी हैं, तू काहे कू ऐसे देवता की पूजा करावै जो इन्द्र हम ते रूठ जाय और हमारे ऊपर कछु विपदा आ जावै।" तो लाला ने कहा - ’आप सब व्यर्थ की चिन्ता कू छोड़ कै मेरे गोवर्धन की पूजा करौ।" तो सभी ने गोवर्धन महाराज की पूजा की और छप्पन भोग, छत्तीस व्यंजन आदि सामग्री का भोग लगाया। भगवान श्री कृष्ण जी गोपों को विश्वास दिलाने के लिये गिरिराज पर्वत के ऊपर दूसरे विशाल रूप में प्रकट हो गये और उनकी सभी सामग्री खाने लगे। यह देख सभी ब्रजवासी बहुत प्रसन्न हो गये।

जब अभिमानी इन्द्र को पता लगा कि समस्त ब्रजवासी मेरी पूजा को बंद करके किसी और की पूजा कर रहे हैं, तो वह सभी पर बहुत ही क्रोधित हुए। इन्द्र ने तिलमिला कर प्रलय करने वाले मेघों को ब्रज पर मूसलाधार पानी बरसाने की आज्ञा दी। इन्द्र की आज्ञा पाकर सभी मेघ सम्पूर्ण ब्रज मण्डल पर प्रचण्ड गड़गड़ाहट, मूसलाधार बारिश, एवं भयंकर आँधी-तूफ़ान से सारे ब्रज का विनाश करने लगे। यह देख सभी ब्रजवासी दुखी होकर श्री कृष्ण जी से बोले - "लाला तेरे कहवे पै हमने इन्द्र की पूजा नाय की जाते वो नाराज है गयौ है और हमें भारी कष्ट पहुँचा रहौ है अब तू ही कछु उपाय कर।" श्री कृष्ण जी ने सम्पूर्ण ब्रज मण्डल की रक्षा हेतु गोवर्धन पर्वत को खेल खेल में उठा लिया एवं अपनी बायें हाथ की कनिका उंगली पर धारण कर लिया और समस्त ब्रजवासियों, गौओं को उसके नीचे एकत्रित कर लिया। श्री कृष्ण जी ने तुरन्त ही अपने सुदर्शन चक्र को सम्पूर्ण जल को सोखने के लिये आदेशित किया। श्री कृष्ण जी ने सात दिन तक गिरिराज पर्वत को उठाये रखा और सभी ब्रजवासी आनन्दपूर्वक उसकी छ्त्रछाया में सुरक्षित रहे। इससे आश्चार्यचकित इन्द्र को भगवान की ऐश्वर्यता का ज्ञान हुआ एवं वो समझ गये कि यह तो साक्षात परम परमेश्‍वर श्री कृष्ण जी हैं। इन्द्र ने भगवान से क्षमा-याचना की एवं सभी देवताओं के साथ स्तुति की।

श्रीवृन्दावन के मुकुट स्वरूप श्री गोवर्धन पर्वत श्री कृष्ण के ही स्वरूप हैं। श्री कृष्ण सखाओं सहित गोचारण हेतु नित्य यहाँ आते हैं तथा विभिन्न प्रकार की लीलायें करते हैं। प्राचीन समय से ही श्री गोवर्धन की परिक्रमा का पौराणिक महत्व है। प्रत्येक माह के शुक्लपक्ष की एकादशी से पूर्णिमा तक लाखों भक्त यहाँ की सप्तकोसी परिक्रमा पैदल एवं कुछ भक्त दंडौती (लेट कर) लगाते हैं। प्रति वर्ष गुरु पूर्णिमा (मुड़िया पूनौ) पर यहाँ की परिक्रमा लगाने का विशेष महत्व है, इस अवसर पर लाखों भक्त परिक्रमा लगाते हैं। श्री गिरिराज तलहटी समस्त गौड़ीय सम्प्रदाय अष्टछाप कवि एवं अनेक वैष्णव रसिक संतों की साधाना स्थली रही है।

Image
Image
Image

मानसी गंगा

Image

मानसी गंगा के सभी घाटों का निर्माण जयपुर नरेश मान सिंह के पिता राजा भगवान दास ने कराया था। मानसी गंगा का बहुत महत्व है। मानसी गंगा के प्राकट्य की तीन कथायें प्रचलित हैं : - १. श्री कृष्ण ने गोपियों के कहने पर वृष हत्या के पाप से मुक्त होने के लिये अपने मन से इसे प्रकट किया तथा एवं इसमें स्नान कर पाप मुक्त हुए।

दूसरी कथा के अनुसार एक बार श्री नन्दबाबा, यशोदा मैया सभी ब्रजवासियों सहित गंगा स्नान करने के लिये यात्रा पर जा रहे थे। रात्रि को इन्होंने गोवर्धन में विश्राम किया। कृष्ण ने सोचा सारे तीर्थ ब्रज में विद्यमान हैं, तो इतनी दूर जाने की क्या आवश्यकता है। तो श्री कृष्ण ने भागीरथी गंगा का मन में स्मरण किया और स्मरण करते ही गंगा जी वहाँ दीपावली के दिन प्रकट हो गयीं। रात्रि में सभी ने दीपदान किया तथा स्नान किया। जब से प्रतिवर्ष लाखों तीर्थ यात्री यहाँ दीपावली पर दीपदान करते हैं एवं स्नान करते हैं।

तीसरी कथा के अनुसार श्रीकृष्ण जी की पटरानी यमुना जी ने अपनी बड़ी बहिन गंगा देवी के ऊपर कृपा करने के लिये प्यारे श्री कृष्ण जी से प्रार्थना की। श्री कृष्ण जी ने यमुना जी की प्रार्थना सुनकर उसी समय गंगा जी का आह्वान किया और गोपियों के साथ जल बिहार आदि के द्वारा उन्हें कृतार्ध कर दिया।

मानसी गंगा पर दर्शनीय स्थल

श्री हरि देव मंदिर :यह मानसी गंगा के दक्षिण किनारे पर स्थित है। ये गिरिराज गोवर्धन के पूजनीय देव हैं। श्री कृष्ण ने एक स्वरुप से गिरिधारी बनकर अपनी हथेली पर अपने दूसरे स्वरुप गिरिराज जी को धारण किया था। और अपने एक स्वरूप से इनकी पूजा की थी।

ब्रह्म कुण्ड :गौवत्स एवं ग्वालवालों के अपहरण के अपराध से मुक्ति पाने के लिये ब्रह्मा जी यहाँ श्री कृष्ण जी के सम्मुख आये। यहाँ उन्होंने श्री कृष्ण जी का पवित्र मंत्रो के साथ अभिषेक किया एवं उनकी स्तुति की। श्री कृष्ण जी के अभिषेक का पवित्र जल ही ब्रह्म कुण्ड है।

मनसा देवी : ब्रह्म कुण्ड के ऊपर ही मानसी गंगा के किनारे मनसा देवी का मंदिर है। ये मनसा देवी और कोई नहीं स्वयं श्री कृष्ण जी की योगमाया देवी हैं।

गौ घाट : री कृष्ण इस घाट पर गौओं एवं बछड़ों को जल पिलाया करते थे।

चकलेश्वर महादेव: मानसी गंगा के उत्तर में चकलेश्वर महादेव जी विराजमान हैं। इन्द्र के द्वारा घोर बारिश के समय इन महादेव ने अपने त्रिशूल को चक्र के समान धारण कर गिरिराज जी एवं समस्त ब्रजवसियों की रक्षा की थी। कुछ भक्तों का कहना है कि इन महादेव जी की प्रार्थना से यहाँ पर सुदर्शन चक्र ने गिरिराज गोवर्धन एवं ब्रजवासियों की रक्षा की थी। अतः इनका नाम चकलेश्वर महादेव पड़ा।

मुखार बिंद :मानसी गंगा के उत्तरी तट पर गोवर्धन जी का मुखारबिंद है। यहाँ गोवर्धन जी का दर्शन बैठी हुई गाय के समान है, जिसका पिछला भाग पूँछरी है। उन्होंने अपनी गर्दन को घुमा कर मुख मंडल को अपने पेट के निकट रखा है। उनके दोनों नेत्र राधा कुण्ड और श्याम कुण्ड हैं। यहाँ गिरिराज जी के मुखार बिंद के बहुत सुन्दर दर्शन होते हैं एवं प्रतिदिन इनका अभिषेक पूजन और अन्नकूट का आयोजन होता है।

Image

गोवर्धन में दर्शनीय स्थल

कछु माखन कौ बल बढ़ौ, कछु गोपन करी सहाय
श्री राधे जू की कृपा से गिरिवर लियौ उठाय

श्याम ढाक : ब्रज गोपिकाऐं दही-छाछ की मटकियाँ लेकर जा रहीं थी। श्री कृष्ण और अन्य सखाओं ने उन्हें देखा तो उनसे छाछ मांगा। लेकिन किसी भी ग्वालवाल पर दोना या अन्य कोई पात्र नहीं था, जिसमें वे छाछ-दही लेते। श्री कृष्ण जी ने कदम्ब वृक्षों से प्रार्थना की - "आप हमको दौना दे दो।" यहाँ के वृक्ष श्री कृष्ण जी की सेवा के लिये हमेश तत्पर रहते हैं। तब कदम्ब वृक्षों ने अपने पत्तों को दौने का आकार प्रदान किया। जिनमें उन्होंने छाछ पीया। आज भी यहाँ स्थित कदम्ब वृक्षों पर दौने के आकार के पत्ते आते हैं। "श्याम ढाक के दौना, जा में खावै श्याम सलोना"

कुसुम सरोवर : यहाँ पर एक विशाल पुष्प वन था। इस पुष्प वन में किशोरी जी अपनी सखियों के साथ पुष्प चुनने आती थीं, और श्याम सुन्दर अपने सखाओं के साथ गोचारण करते हुए यहाँ आते थे। श्री प्रिया-प्रियतम का यहाँ नित्य मिलन होता था। एक दिन किशोरी जी सखियों के साथ कुसुम वन में फ़ूल चयन कर रही थीं, श्री श्याम सुन्दर ने माली के रूप में दूर से खड़े होकर आवाज लगायी-"कौन तुम फ़ुलवा बीनन हारी" । साथ की सखियाँ आवाज सुनकर चौंक गयीं और इधर उधर भागने लगीं। तभी श्री किशोरी जी का नीलाम्बर एक झाड़ी में उलझ गया और सारे पुष्प उनके हाथ से नीचे पृथ्वी पर गिर गये। इतने में ही श्यामसुन्दर माली का वेष त्याग कर सामने उपस्थित हो गये। प्यारे श्यामसुन्दर ने नीलाम्बर को झाड़ी से छुड़ाया और पृथ्वी पर गिरे हुए पुष्प बीन लिये। इन पुष्पों को श्री कृष्ण जी ने कुसुम सरोवर में धोकर श्री राधा जी की चोटी में गूँथ दिये।

नारद कुण्ड : कुसुम सरोवर के सामने ही यहाँ नारद कुण्ड है। यहाँ नारद जी का मन्दिर है।

उद्धव कुण्ड : यह कुसुम सरोवर के पास परिक्रमा मार्ग पर स्थित है। उद्धव जी ने ब्रजवास की कामना हेतु यहाँ लत-पता बनने के लिये इच्छा प्रगट की। ताकि वह लता-पता बनकर ब्रज में सदा निवास करें।

पूँछरी का लौठा : ययह गोवर्धन पर्वत की पूँछ कहा जाता है। यहाँ एक लौठा पहलवान का मन्दिर है जिसे श्री नाथ जी का सखा कहते हैं। जब श्री नाथ जी ब्रज छोड़कर राजस्थान जाने लगे तो उन्होंने लौठा से भी साथ चलने के लिए कहा। लौठा जी ने कहा - गोपाल मैंने प्रण लिया है कि मैं ब्रज छोड़ कर कहीं नहीं जाउंगा और जब तक आप वापस नहीं आओगे मैं अन्न-जल ग्रहण नहीं करुँगा। और जब आप लौट आओगे मेरा लौठा नाम सार्थक हो जायेगा। तो श्री नाथ जी ने कहा कि मैं तुम्हें वरदान देता हूँ कि बिना अन्न-जल के ही तुम स्वस्थ और जीवित रहोगे। "धनि धनि पूँछरी के लौठा, अन्न खाये न पानी पीवै ऐसे ही पड़ौ सिलौठा"

गोविन्द कुण्ड : देवराज इन्द्र ने अपनी गलती को स्वीकार करते हुए यहीं पर श्री कृष्ण जी की पूजा अर्चना की थी एवं कामधेनु के दूध से श्यामसुन्दर का अभिषेक किया था।

श्रीकृष्णकुण्ड :श्री कॄष्ण बलराम सखाओं सहित गोवर्धन की तलह्टी में गोचारण कर रहे थे। उसी समय कंस का भेजा हुआ अरिष्टासुर बैल का रूप धारण कर बछड़ों के समूह में आ मिला। श्री कृष्ण यह दृश्य देख रहे थे और उन्होंने श्री बलराम से परामर्श कर उसका वध कर दिया। यह बात किसी से छिपी न रही कि कृष्ण ने एक बछड़े का वध किया है। श्रीकृष्ण गोचारण करते हुए श्रीराधा एवं अन्य सखियों के पास पहुँचे तो सभी सखियों ने कहा कि आप हमसे दूर रहें क्योंकि तुम गौ-घाती हो, तुम्हारे स्पर्श से हमें भी इसका दोष लगेगा। श्री कृष्ण ने राधा जी और अन्य गोपियों से कहा कि तुम सब बहुत ही मन्दबुद्धि हो मैंने उस असुररूपी बछड़े का वध किया है जोकि ब्रज का अनिष्ट करने आया था। इस पर सखियों ने कहा कि इन्द्र को भी वृत्तासुर(जो ब्राह्मण था) का वध करने पर ब्रह्म हत्या का दोष लगा था। यह सुनकर श्री कृष्ण नि:उत्तर होकर भावुक स्वर में सखियों से बोले अब मुझे इस दोष के निवारण के लिये क्या करना चाहिये। तो सखियों ने कहा आप समस्त तीर्थों में जाकर स्नान करें तो इस पाप से मुक्ति मिलेगी। श्री कृष्ण ने सखियों से कहा-मैं यहीं समस्त तीर्थों को प्रकट करता हूँ और जैसे ही कृष्ण जी ने अपना चरण उठाकर पृथ्वी पर जोर से मारा तो तत्काल पाताल से भोगवती का जल निकलने लगा। श्री कृष्ण जी ने सभी तीर्थों को बुलाकर कहा कि इस भोगवती के जल में आप सभी समाविष्ट हो जाओ। श्री कृष्ण ने स्नान कर गोपियों से कहा तुम्हें भी असुर का पक्ष लेने के कारण पाप लगा है अत: तुम भी इसमें स्नान कर पापमुक्त हो जाओ।

राधाकुण्ड : जब कृष्ण जी ने सभी गोपियों एवं राधा जी को कृष्ण्कुण्ड में स्नान कर पाप मुक्त होने के लिये कहा तो राधा जी ने कहा - हम आपके गौहत्या पापलिप्त कुण्ड में क्यों स्नान करें क्या हम अपने लिये दूसरा शुद्ध कुण्ड नहीं बना सकती। इतना कहकर राधा जी ने सभी सखियों के साथ मिलकर अपने कंगनों से खोदकर एक सुन्दर कुण्ड बनाया एवं मानसी गंगा से जल लाकर इसमें भरा। इस कुण्ड में सभी स्नान करके असुर का पक्ष लेने के अपराध से मुक्त हुए। श्री राधाकुण्ड के मध्य ही कंकन कुण्ड स्थित है। जब कुण्ड में जल कम होता है तो इसके दर्शन होते हैं। कष्ण जी ने सभी तीर्थों को आदेश दिया कि आप सभी तीर्थ राधा जी के इस कुण्ड में प्रविष्ट होने के लिये उनकी स्तुति करो। श्री राधा जी ने सभी तीर्थगणों से पूँछा आप ऐसा क्यों करना चाहते हैं, तो सभी तीर्थ बोले कि हे करुणामयी हम आपके सरोवर में प्रविष्ट होकर अपने तीर्थ नाम को साकार करना चाहते हैं। श्रीराधा जी ने कृष्ण की ओर देखकर समस्त तीर्थों को अपने कुण्ड में प्रविष्ट होने की आज्ञा प्रदान की। श्री कृष्ण ने राधा कुण्ड में नित्य स्नान एवं जलबिहार का संकल्प लिया। श्री राधा जी ने कृष्ण कुण्ड में नित्य स्नान करने वालों को एवं उसके समीप वास करने वालों को समस्त पापों से मुक्त होकर अपने परमधाम प्राप्त करने का वचन दिया। इस कुण्ड का प्रादुर्भाव कार्तिक कृष्ण पक्ष की अष्टमी की अर्धरात्रि को हुआ था। आज भी हजारों नर-नारि यहाँ अष्टमी के दिन स्नान कर अपनी सभी मनोकामना को पूरा करते हैं।

माल्यहारी कुण्ड : दीपावली के उत्सव पर श्री राधिका जी ने जब श्री कृष्ण को श्रंगार के मोती नहीं दिये तो भगवान श्री कृष्ण ने यहाँ मोतियों की खेती की थी।

जतीपुरा: इस स्थान पर गिरिराज शिला के नीचे श्री नाथ जी प्रकट हुए थे। यह स्थल श्री नाथ जी की विभिन्न लीलाओं को संजोये हुए है। बाद में औरंगजेब द्वार हिन्दू मंदिरों पर आक्रमण करने के कारण श्री नाथ जी को नाथद्वारा ले जाया गया।

दानघाटी : गोवर्धन की प्रेम घाटी, गोविन्द घाटी, श्याम घाटी एवं दान घाटी इन चार घाटियों में दान घाटी बहुत प्रसिद्ध है। यहाँ श्री गिरिराज मुखारबिन्द के सुन्दर दर्शन होते हैं एवं नव-निर्मित मंदिर में अनेक भगवत् विग्रहों के दर्शन हैं। श्री कृष्ण अपने सखाओं के साथ ब्रजगोपियों को इस घाटी पर रोक कर दूध-दधि का दान लिया करते थे। प्राय: यात्री दानघाटी से ही गोवर्धन परिक्रमा आरंभ करते हैं।

लक्ष्मी-नारायण मन्दिर: दान घाटी के सामने श्री लक्ष्मी-नारायण जी का विशाल मन्दिर है। इसमें ब्रज के प्रसिद्ध वयोवृद्ध परम भागवत पण्डित श्री गया प्रसाद जी जो एक सिद्ध संत थे उनको गिरिराज जी का साक्षात्कार यहीं पर हुआ था। उनके दर्शन से ही समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं।

आन्यौर : यह वही स्थान है जहाँ नन्दराय और यशोदा जी ने सभी ब्रजवासियों के साथ श्री गिरिराज जी को अनेक प्रकार के पकवान आदि निवेदित किये थे। श्री कृष्णजी गिरिराज स्वरूप में प्रकट होकर समस्त पकवानों का भोग लगा रहे थे। भोग लगाते हुए कह रहे थे आन और आन और(और लाओ और लाओ)। अतः इस स्थान का नाम आन्यौर पड़ गया।

चन्द्र सरोवर (पारसौली): यहाँ भगवान श्री कृष्ण ने सर्वप्रथम छ: मास रात्रि की रास लीला की थी। गोवर्धन क्षेत्र में केवल इसी स्थान पर रासलीला का वर्णन मिलता है। यहाँ सूरदास जी की जन्मस्थली है।

Image
Image
Image

बरसाना धाम

Image

किशोरी श्री राधा जू की कृपा कटाक्ष के बिना मधुर रस का आस्वादन नहीं हो सकता। श्री कृष्ण भी इनके प्रेम में मतवाले तथा इनकी चरण रज के लिये लालायित रहते हैं। वैसे तो श्री राधा तथा श्री कृष्ण एक ही रस समुद्र के दो महान रत्न हैं, आनन्द आस्वादन हेतु ये दो देह धारण कर लीलायें कर रहे हैं। जिस प्रकार श्री राधा जी के बिना कृष्ण जी की बाल लीलाओं का वर्णन अधूरा है उसी प्रकार बरसाना के बिना ब्रज का वर्णन नहीं किया जा सकता। बरसाना का प्राचीन नाम वृषभानुपुर है।

ब्रज में निवास करने के लिये स्वयं ब्रह्मा जी भी आतुर रहते थे एवं श्री कृष्ण लीलाओं का आनन्द लेना चाहते थे। अतः उन्होंने सतयुग के अंत में विष्णु जी से प्रार्थना की कि आप जब ब्रज मण्डल में अपनी स्वरूपा श्री राधा जी एवं अन्य गोपियों के साथ दिव्य रास-लीलायें करें तो मुझे भी उन लीलाओं का साक्षी बनायें एवं अपनी वर्षा ऋतु की लीलाओं को मेरे शरीर पर संपन्न कर मुझे कृतार्थ करें।

श्री ब्रह्मा जी की इस प्रार्थना को सुनकर भगवान विष्णु जी ने कहा - "हे ब्रह्मा! आप ब्रज में जाकर वृषभानुपुर में पर्वत रूप धारण कीजिये। पर्वत होने से वह स्थान वर्षा ऋतु में जलादि से सुरक्षित रहेगा, उस पर्वतरूप तुम्हारे शरीर पर मैं ब्रज गोपिकाओं के साथ अनेक लीलायें करुंगा और तुम उन्हें प्रत्यक्ष देख सकोगे। अतएव बरसाना में ब्रह्मा जी पर्वत रूप में विराजमान हैं। पद्मपुराण के अनुसार यहाँ विष्णु और ब्रह्मा नाम के दो पर्वत आमने सामने विद्यमान हैं। दाहिनी ओर ब्रह्म पर्वत और बायीं विष्णु पर्वत विद्यमान है।

श्री नन्दबाबा एवं श्री वृषभानु जी का आपस में घनिष्ट प्रेम था। कंस के द्वारा भेजे गये असुरों के उपद्रवों के कारण जब श्री नन्दराय जी अपने परिवार, समस्त गोपों एवं गौधन के साथ गोकुल-महावन छोड़कर नन्दगाँव में निवास करने लगे, तो श्री वृषभानु जी भी अपने परिवार सहित उनके पीछे-पीछे रावल को त्याग कर चले आये और नन्दगाँव के पास बरसाना में आकर निवास करने लगे। यहाँ के पर्वतों पर श्री राधा-कृष्ण जी ने अनेक लीलाएँ की हैं। अपनी मधुर तोतली बोली से श्रीवृषभानु जी एवं कीरति जी को सुख प्रदान करती हुईं श्री राधा जी बरसाने की प्रत्येक स्थली को अपने चरण-स्पर्श से धन्य करती हैं। बरसाना गाँव लट्ठमार होली के लिये प्रसिद्ध है जिसे देखने के लिये हजारों भक्त एकत्र होते हैं।

Image

बरसाना में दर्शनीय स्थल

सांकरी खोर : ब्रह्म पर्वत और विष्णु पर्वत के मध्य संकरी गली को ही सांकरी खोर कहते हैं। इस मार्ग से गोपियाँ दूध-दही बेचने जाया करती थीं। एक बार श्री कृष्ण जी ने गोपियों को यहाँ रोक लिया और कर के रूप में दही-माखन मांगने लगे। सखियों के आनाकानी करने पर श्रीकृष्ण एवं अन्य सखाओं ने उनकी मटकी फ़ोड़कर सारा दूध-दही लूट लिया। यहाँ प्रतिवर्ष भाद्रपद मास के शुक्ला त्रियोदशी के दिन बूढ़ीलीला(मटकीफ़ोड़ लीला) होती है।

दानगढ : यह ब्रह्म पर्वत के उत्तरी भाग में एवं सांकरी खोर की पश्चिम दिशा में है। यहाँ पर श्री कृष्ण सखाओं के साथ श्री राधिका एवं अन्य सखियों की प्रतीक्षा कर रहे थे। श्री राधा एवं अन्य सखियाँ सूर्य पूजा के बहाने विविध द्रव्यों को लेकर वहाँ से गुजर रहीं थी। तब श्री कृष्ण जी ने कहा आप यहाँ से जा रही हो आपको कर देना होगा। विशाखा सखी ने पूँछा- "तुम कौन होते हो कर लेने वाले। कृष्ण जी बोले मुझे यहाँ राजा कन्दर्पदेव ने कर लेने के लिये नियुक्त किया है। सभी सखियाँ बोलीं यहाँ की राजेश्वरी तो श्री राधा रानी हैं। श्री राधा जी के कटाक्षरूपी बाणों से आपके राजा कन्दर्प का सारा पराक्रम दूर हो जाता है। यहाँ पर दान बिहारी जी का मन्दिर है।

मानगढ़ : एक बार श्याम सुन्दर राधा जी से मिलने जा रहे थे, मार्ग में उन्हें पद्मा मिली और उसने कृष्ण जी को चन्द्रावली के विरह के बारे में बताया। श्री श्याम सुन्दर जी चन्द्रावली को सांत्वना देने चले गये। श्री राधा जी श्यामसुन्दर के न आने के कारण व्याकुल हो गयीं और उन्होंने अपनी सखियों को श्याम सुन्दर के बारे में पता करने को कहा। सखियों ने श्री राधा जी को बताया कि श्याम सुन्दर तो चन्द्रावली सखी की कुञ्ज में हास-परिहास कर रहे हैं। यह सुनकर श्रीराधाजी श्रीश्याम सुन्दर से मान कर बैठीं। रसिक श्री कृष्ण ने बड़े कौशल से श्रीराधा जी का मान भंग किया।

रत्न कुण्ड : कृष्णजी ने मुक्ता कुण्ड में मोती उगाये, जिन्हें नन्दराय जी ने वृषभानु जी के यहाँ भेजा। इनको देखकर वृषभानु चिन्तित हो गये। राधा जी ने उनकी चिन्ता को दूर करने के लिये अपनी माँ से मोती का हार लिया और इस कुण्ड पर मोती की खेती कर दी। जिससे यहाँ विभिन्न प्रकार के मोती उग आये।

विलासगढ़ :विष्णु पर्वत पर स्थित यह स्थान चिकसौली और ऊँचा गाँव से घिरा हुआ है। यहाँ पर श्री राधा जी अपनी सखियों के साथ धूला खेलतीं थीं। यहाँ विलास मन्दिर है। यहाँ श्री राधा-कृष्ण ने विविध प्रकार के क्रीड़ा-विलास किये हैं।

भानुगढ़: बरसाने में भानुगढ़ पर ही श्री राधा रानी जी का मन्दिर स्थित है। इसे वृषभानु जी का भवन कहते हैं। मन्दिर अत्यंत सुन्दर, कलात्मक बना हुआ है। राधाष्टमी पर यहाँ विशेष दर्शन होते हैं।

जय जय बरसानों गाँव जहाँ राधारानी राज रही।
पर्वत ऊपर महल मणिन कौ,
जागे आगे त्रिभुवन फ़ीकौ।
ब्रह्मा रूप धरै पर्वत कौ।
श्री चरनन कौ धाम, जहाँ राधारानी राज रही॥

मोरकुटी यहाँ पर श्री राधा जी मय़ूरों को नृत्य सिखाती थीं। कभी-कभी श्याम सुन्दर भी मोर का रूप धारण कर वहाँ पहुँच जाते थे और राधा रानी जी से नृत्य सीखा करते। श्याम सुन्दर जान बूझ कर गलतियाँ करते और राधा जी उनको डाँटती थीं, श्रीराधा रानी को नाराज होते हुए देख श्यामसुन्दर को बहुत प्रसन्नता होती थीं।

"नाचत मोर संग स्याम, मुदित श्यामाहि रिझावत ।
तसिय कोकिल अलापत, पपहिया देत सुर, तैसोंइ मेघ गरज मृदंग बजावत ॥
तैसिय श्याम घटा निशि सी कारी, तैसिहें दामिनी कौंधै दीप दिखावत ॥
श्री हरिदास के स्वामी श्यामा रीझ श्याम हँसि कण्ठ लगावत॥

गह्वर वन : इस सघन वन को स्वयं श्री राधा रानी जी ने सुशोभित किया। यह बहुत ही रमणीय स्थान है। यह श्री राधा जी एवं अन्य सखियों का नित्य विहार स्थल है। यहाँ श्री राधा-सरोवर, रास मण्डल, शंख का चिह्न और गाय के स्तन का चिह्न दर्शनीय है। रास मण्डल के पास मयूर सरोवर है। अनेक वैष्णव रसिक संतों को यहाँ श्री किशोरी जू का साक्षात्कार हुआ है। महाप्रभु श्री बल्लभाचार्य जी की यहाँ बैठक भी है।

कृष्ण कुण्ड : चारों ओर से लता-पताओं, वृक्षों से घिरा हुआ यह सरोवर गह्वर वन की शोभा है तथा अनेक वैषणवों के लिये श्रद्धा का स्थल है। पिया-प्रियतम ने यहाँ जल केलि आदि लीलाएं की हैं।

चिकसौली : चाश्रीराधा जी की अष्ट सखियों में अत्यंत प्रिय चित्रा सखी का यह जन्म स्थान है। चित्रा सखी के पिता का नाम चतुर्गोप और माता का नाम चर्चिता था। चित्रा सखी श्री राधा जी के नाना प्रकार के श्रंगार करने में दक्ष, चित्रकला में योग्य तथा पशु-पक्षियों की भाषा समझने में निपुण थीं।

दोहनी कुण्ड : यह गहवर वन के समीप ही चिकसौली गाँव में स्थित हैं। इस स्थान पर महाराज वृषभानु जी की लाखों गाय रहती थीं। एक बार श्री राधा जी की गौ दोहन की इच्छा हुई, वे मटकी लेकर एक गाय का दूध दोहने लगीं। उसी समय श्रीकृष्ण भी वहाँ आ पहुँचे और बोले - सखी! तोपे दूध दोहवौ नाय आवै है, ला मैं बताऊँ। दोनों ने गाय के थन दोहना प्रारम्भ किया। तो श्यामसुन्दर ने ठिठोली करते हुए दूध की धार राधा जी के मुख पर ऐसी मारी कि राधा जी का मुख दूध से भर गया। यह सब देखकर सखियाँ हंसने लगीं।

आमें सामें बैठ दोऊ दोहत करत ठिठोर, दूध धार मुखपर पड़त दृग भये चन्द्र चकोर।

पीलीपोखर : यह बरसाना की उत्तर दिशा में है। पीलू के वृक्षॊं से घिरे इस वन में श्रीराधा जी अपनी सखियों के साथ अनेक प्रकार की क्रीड़ा करती थीं। श्याम सुन्दर जी भी गौचारण कराते हुए अपने सखाओं के साथ यहाँ पहुँच जाया करते और श्री राधा जी से मिला करते थे। माना जाता है यहाँ श्री राधा जी ने विवाह के पश्चात हल्दी से लिपे हाथ धोये थे जिससे सारा जल पीला हो गये। अतः इसे पीली पोखर कहते हैं।

ऊँचा गाँव : यहश्री राधा जी की अष्ट सखियों में सबसे प्रधान श्री ललिता सखी जी का यह गाँव है। श्री ललिता सखी जी तो श्रीराधा-कृष्ण की निकुंज लीलाओं की भी साक्षी हैं। श्रीराधाजी को अमित सुख प्रदान कराने वाली ललिता सखी प्रिया-प्रियतम की विविध लीलाओं में सहगामी हैं। इनके नि:स्वार्थ प्रेम के वशीभूत होने के कारण श्री युगल सरकार इन्हें हमेशा अपने साथ ही रखते हैं। स्वयं भोलेनाथ शंकर जी ने भी गोपी भाव की दीक्षा इन्हीं से ली थी।

चित्र-विचित्र शिला : एक समय सखियों ने प्रिया-प्रियतम का श्रंगार किया तथा ललिता जी के साथ श्री श्याम सुन्दर के विवाह का आयोजन किया। उनके मेहंदी रचे कर-कमल इस शिला पर टिके थे, जिसके चिह्न आज भी दर्शनीय हैं। सखियों द्वारा यहाँ की गयी चित्रकारी की सुन्दरता आज भी देखते ही बनती है।

रीठौरा : श्री वृषभानु जी के ज्येष्ठ भ्राता श्री चन्द्रभानु गोपजी का यह गाँव है। इन्हीं चन्द्रभानुजी की लाड़िली बेटी श्री चन्द्रावली जी हैं। ये श्री कृष्ण जी की अनन्य प्रिया सखी हैं। श्री कृष्ण जी इनके प्रति विशेष प्रेम रखते थे। यहाँ चन्द्रावली सरोवर तथा श्री बिट्ठलनाथ जी की बैठक है।

डभारो : यह श्री तुंगविद्या सखी जी का जन्मस्थल है।

संकेतवन : बरसाना और नंदगाँव दोनों के बीच में संकेत वन स्थित है। श्री राधा जी जावट से और श्री कृष्ण नंदगाँव से आकर यहाँ पर मिलते थे। वृन्दा देवी, वीरा देवी और सुबल सखा किसी न किसी बहाने से संकेत के द्वारा यहाँ पर प्रिया-प्रियतम का मिलन कराते थे। यहाँ पर संकेत बिहारी जी का मन्दिर, रास मण्डल स्थल, झूला मण्डप आदि दर्शनीय हैं।

अन्य स्थल : वृषभानु सरोवर, कीर्तिदा सरोवर, श्रीराधा सरोवर, ब्रजेश्वर महादेव, शूरसरोवर, मयूर सरोवर, त्रिवेणी स्थल, सखी कूप, बल्देव स्थल आदि दर्शनीय हैं।

Image
Image
Image

नन्दगाँव

Image

वृन्दावन सौ वन नहीं, नन्दगाँव सौ गाँव।
बंशीबट सौ बट नहीं, कृष्ण नाम सौ नाम॥

नन्दगाँव श्री नन्दराय जी एवं उनके पूर्वजों की निवास स्थली रही है। किन्हीं कारणवश वे बाद में गोकुल(महावन) जाकर बस गये। जिस समय श्री कृष्ण भगवान का प्रादुर्भाव हुआ उस समय नन्दराय जी गोकुल में ही रहते थे। श्री नन्दराय जी गोकुल में कंस द्वारा भेजे गये असुरों से भयभीत होकर अपने लाला श्रीकृष्ण-बलराम एवं अन्य गोप समूह, समस्त गौधन को साथ लेकर श्री यमुनाजी के रमणीय तटवर्ती स्थल वृन्दावन होते हुए नन्दगाँव आकर रहने लगे।

श्रीमद्‍भागवत के अनुसार ब्रज प्रमुखतः दो भागों में विभाजित है -
१. वृह्दवन - महावन, मधुवन, तालवन, भद्रवन, कुमुदवन आदि
२. वृन्दावन - गोवर्धन, बरसाना, नन्दगाँव आदि

अतः नन्दगाँव भी वृन्दावन के अन्तर्गत आता है। यहाँ की रमणीय स्थलियाँ, सघन वृक्षावली, मनोरम कुण्ड तथा गोचर भूमि सभी के मन को सहज लुभाती हैं। श्री महादेव जी ने माता यशोदा से प्रार्थना की -" हे ब्रजरानी! वृन्दावन में मैं पर्वत रूप में विराजमान हूँ आप जब गोकुल छोड़कर वृन्दावन आयें तो आप नन्दराय जी तथा श्री कृष्ण-बलराम के साथ मेरी पीठ पर आकर निवास करें।" श्री शिव विग्रहरूप पर्वत पर श्री नन्दमहाराज अपने भाईयों-उपनन्द, प्रतिनन्द, अभिनन्द और सुनन्द के साथ आकर यहाँ निवास करने लगे थे। यहीं स्थान ब्रज में आज नन्दगाँव के नाम से प्रसिद्ध है। श्री कृष्ण जी ने यहाँ अपनी अनेक बाल लीलायें संपन्न की हैं।

ब्रज चौरासी कोस में, चार धाम निज धाम। वृन्दावन अरु मधुपुरी, बरसाना नंदगाँव॥

Image

नन्दगाँव के दर्शनीय स्थल

नन्दभवन : यह नन्दगाँव का प्रमुख मन्दिर है। यह नन्दीश्वर पर्वत पर स्थित है। इसमें नन्दबाबा माँ यशोदा, रोहिणी एवं श्री कृष्ण-बल्देव के साथ विराजमान हैं। यहाँ सबके अलग-अलग शयन कक्ष हैं। यहीं पर श्री कृष्ण-बलराम ने अपनी बाल एवं किशोर अवस्था तक की बहुत सी लीलायें की हैं।

नन्दकुण्ड: नन्दभवन से थोड़ी दूर दक्षिण में नन्द कुण्ड है। महाराज नन्द प्रातः काल यहाँ स्नान, संध्या वंदन आदि करते थे। कभी-कभी कृष्ण और बलराम को अपने कन्धों पर बिठाकर लाते और उन्हें भी यहाँ स्नान कराते थे। कुण्ड के तट पर स्थित मन्दिर में नन्दबाबा की गोद में बैठे हुए श्री कृष्ण एवं बलराम जी के मनोहर दर्शन हैं।

नन्दबैठक: ब्रजेश्वर महारज नन्दराय जी यहाँ अपने सभी परिजनों, वृद्ध गोपों तथा पुरोहित आदि के साथ समय समय पर बैठकर श्री कृष्ण-बलराम के कल्याण के लिए परामर्श किया करते थे।

यशोदा कुण्ड : मैया यशोदा प्रतिदिन यहाँ स्नान करने आतीं थीं। माँ यशोदा के साथ कभी-कभी कृष्ण-बलराम भी स्नान करने आ जाते थे और उन दोनों की जल क्रीड़ाएं देखकर यशोदा जी बहुत प्रसन्न्द होती थीं। कुण्ड के तट पर नृसिंह जी का मन्दिर है, वह नित्य नृसिंह देव से लाला कन्हैया के कुशल मंगल की प्रार्थना करती थीं। इसी के पास ही एक प्राचीन गुफ़ा है जिसमें अनेक संत महात्माऒं ने तप किया और ठाकुर जी की दिव्य लीलाओं के दर्शन किये।

हाऊ-विलाऊ : "दूर खेलन मत जाओ लाल यहाँ हाऊ आये हैं, हँस कर पूछत कान्ह मैया यह किनै पठाये हैं॥" यशोदा कुण्ड के पश्चिम तट पर सखाओं के साथ कृष्णजी की बाल लीलाऒं का यह स्थान है। यहाँ श्री कृष्ण-बलराम सखाओं के साथ खेलने आया करते थे और खेलने में इतने तनमय हो जाते कि उन्हें भोजन करने का भी स्मरण नहीं रहता। मैया यशोदा कृष्ण-बलराम को बुलाने के लिए रोहिणी जी को भेजती, किन्तु जब वे नहीं आते तो स्वयं जाती और नाना प्रकार से डराते हुए कहती - लाला! जल्दी आजा हऊआ आ जायेगौ।" तो कन्हैया डर कर मैया की गोद में आ जाया करते।

चरण पहाड़ी: नन्दगाँव के पश्चिम में चरण पहाड़ी स्थित है। श्री कृष्ण ने यहाँ लाखों गायों को एकत्रित करने के लिए गौचारण के समय इस पहाड़ी पर बंशी वादन किया था। श्री कृष्ण जी की मधुर बंशी को सुनकर यह पहाड़ी पिघल गयी तथा कृष्ण के चरण चिह्न यहाँ पर बन गये।

वृन्दा देवी : चरण पहाड़ी से थोड़ी ही दूर वृन्दा देवी का मन्दिर है। श्री कृष्ण की प्रकट लीला के समय वृन्दा देवी यहाँ निवास किया करती थीं। यहीं से वे संकेत आदि कुंजों में श्री राधा-कृष्ण का मिलन करातीं थीं। यहाँ वृन्दा देवी कुण्ड भी है। वृन्दा देवी ही श्रीराधा-कृष्ण की लीलाओं की अधिष्ठात्री वन देवी हैं। वृन्दा देवी की कृपा से ही श्री राधा-कृष्ण की लीलाओं में प्रवेश लिया जा सकता है।

गह्वर वन : इस सघन वन को स्वयं श्री राधा रानी जी ने सुशोभित किया। यह बहुत ही रमणीय स्थान है। यह श्री राधा जी एवं अन्य सखियों का नित्य विहार स्थल है। यहाँ श्री राधा-सरोवर, रास मण्डल, शंख का चिह्न और गाय के स्तन का चिह्न दर्शनीय है। रास मण्डल के पास मयूर सरोवर है। अनेक वैष्णव रसिक संतों को यहाँ श्री किशोरी जू का साक्षात्कार हुआ है। महाप्रभु श्री बल्लभाचार्य जी की यहाँ बैठक भी है।

पावन सरोवर: चायह सरोवर नंदगाँव से काम्यवन जाने वाले रास्ते पर स्थित है। इस सरोवर का निर्माण विशाखा सखी के पिता पावन गोप ने किया था, इसीलिए इसका नाम पावन सरोवर है। सखाओं के साथ गोचारण से लौटते समय कृष्ण जी अपनी गायों को इस सरोवर में पानी पिलाते थे।

धोवनी कुण्ड: पावन सरोवर के पास ही यह कुण्ड स्थित है। इस कुण्ड में दूध-दही के बर्तन धोये जाते थे इसीलिए इसका नाम धोवनी कुण्ड पड़ गया।

मुक्ता (मोती) कुण्ड : जब वृषभानु जी राधा जी की सगाई श्री कृष्ण जी के साथ करने नन्दगाँव पहुंचे तो साथ में विविध प्रकार के वस्त्र, अलंकार, आभूषण, रत्न, मोती आदि अपने साथ लाये। इन सब को देखकर नन्दराय जी एवं यशोदा जी चिन्तित हुई और सोचने लगीं कि इसके बदले हम बरसाना क्या भेजें, हमारे पास तो इतने रत्न नहीं है। श्री कृष्ण जी ने माँ यशोदा की चिन्ता को दूर करने के लिये यहीं पर रत्नों की खेती की और यहाँ नाना प्रकार के रत्न उग आये थे।

ललिता कुण्ड : यह वह स्थान है जहाँ ललिता सखी जी श्रीराधा रानी को किसी न किसी बहाने से बुलाकर श्रीश्याम सुन्दर से मिलाया करती थीं।

टेर कदम्ब : नन्दगाँव एवं जावट ग्राम के बीच में यह स्थित है। जब श्रीकृष्ण जी गोचारण कराने जाते थे, तो कदम्ब वृक्ष के ऊपर बैठकर मधुर बंशी बजाकर अपनी गायों को टेरते थे। टेरने का मतलब होता है पुकारना अथवा बुलाना। सभी गाय कन्हैया की बंशी सुनकर यहाँ एकत्र हो जाती थीं। अतः यह स्थान टेर कदम्ब कहलाता है। आज भी गोपाष्टमी के दिन नन्दगाँव के गोस्वामी परम्परागत इस उत्सव को मनाते चले आ रहे हैं।

आसेश्वर महादेव : यहाँ आसेश्वर महादेव का मन्दिर है।

Image
Image
Image

काम्यवन (कामां)

Image

काम्यवन ब्रज के बारह वनों में से एक उत्तम वन है। काम्यवन के आस-पास के क्षेत्र में तुलसी जी की प्रचुरता के कारण इसे आदि वृन्दावन भी कहा जाता है। वृन्दा तुलसी जी का ही पर्याय है। श्रीवृन्दावन की सीमा का विस्तार दूर-दूर तक फ़ैला हुआ था, श्री गिरिराज, बरसाना, नन्दगाँव आदि स्थलियाँ श्री वृन्दावन की सीमा के अन्तर्गत ही मानी गयीं। महाभारत में वर्णित काम्यवन भी यही माना गया है, पाण्डवों ने यहाँ अज्ञातवास किया था। वर्तमान में यहाँ अनेक ऐसे स्थल मौजूद हैं जिससे इसे महाभारत से सम्बन्धित माना जा सकता है। पाँचों पाण्डवों की मूर्तियाँ, धर्मराज युधिष्ठिर के नाम से धर्मकूप तथा धर्मकुण्ड भी यहाँ प्रसिद्ध है। यह स्थल राजस्थान राज्य के भरतपुर जिले के अन्तर्गत आता है। इसका वर्तमान नाम कामां है।

विष्णु पुराण के अनुसार यहाँ छोटे-बड़े असंख्य तीर्थ हैं। 84 तीर्थ, 84 मन्दिर, 84 खम्भे आदि राजा कामसेन ने बनवाये थे, जो यहाँ कि अमूल्य धरोहर हैं। यहाँ कामेश्वर महादेव, श्री गोपीनाथ जी, श्रीगोकुल चंद्रमा जी, श्री राधावल्लभ जी, श्री मदन मोहन जी, श्रीवृन्दा देवी आदि मन्दिर हैं। यद्यपि अनुरक्षण के अभाव में यहाँ के अनेक तीर्थ नष्ट भी होते जा रहे हैं फ़िर भी कुछ तीर्थ आज भी अपना गौरव और श्रीकृष्ण लीलाओं को दर्शाते हैं। कामवन को सप्तद्वारों के लिये भी जाना जाता है।

Image

काम्यवन में दर्शनीय स्थल

विमल कुण्ड : चंपक नगरी के राजा विमल की छ: हजार रानियों ने श्रीयाज्ञवल्य ऋषि की कृपा से अनेक कन्याओं को जन्म दिया। इन सभी कन्याओं ने पूर्व जन्म में श्री राम चन्द्र जी से विवाह करने की इच्छा प्रकट की थी। इन सभी की पूर्व जन्म की अभिलाषा को पूर्ण करने के लिये भगवान श्री कृष्ण इन सभी राजकन्याओं को अपने साथ ब्रजमण्डल के कामवन ले आये। इन सभी कन्याओं की संख्या अनुसार कृष्ण जी ने उतने ही रूप धारण कर इन सभी के साथ रासलीला एवं क्रीड़ायें की, उस रास में इन विमलकुमारियों के आनन्द अश्रुओं की धारा से प्रपूरित यह कुण्ड विमल कुण्ड नाम से प्रसिद्ध हो गया। इस कुण्ड में स्नान करने से पुष्करराज में सात बार स्नान करने के बराबर फ़ल की प्राप्ति होती है। इस कुण्ड के चारों ओर दाऊजी, सूर्यदेवजी, नीलकंठ महादेव, श्री गोवर्धन नाथ जी, श्री मदन मोहन जी एवं कामवन बिहारी, श्रीविमला देवी, श्रीमुरली मनोहर, श्री गंगा जी, श्री गोपाल जी आदि दर्शनीय हैं। इनके साथ ही भारत के अनेकों तीर्थ जैसे चार धाम यहाँ अवस्थित हैं।

चरणकुण्ड: श्रीप्रिया-प्रियतम जी एक बार सहस ही यहाँ आकर बैठ गये तथा अपने श्री चरणों से जल उलीझते रहे तथा अठखेलियाँ करते रहे तभी से यह स्थली ठाकुर जी के श्री चरणों की रज से अभिसिंचित होने के कारण चरण कुण्ड नाम से विख्यात हो गयी। इसके पास ही वैद्यनाथ महादेव जी, विष्णु सिंहासन, गरुड़ जी, चन्द्रेश्वर महादेव, बारह कूप, यज्ञ कुण्ड आदि दर्शनीय स्थल हैं।

धर्म कुण्ड : श्री नारायण भगवान स्वयं धर्म रूप में यहाँ विराजते हैं, तथा धर्म का प्रतिपादन करते हैं। यह तीर्थ अत्यंत शोभायमान है। भाद्रपद कृष्णाष्टमी को यहाँ स्नान का विशेष महत्व है। इसके पास ही, नर-नारायण कुण्ड, पंच पाण्डव कुण्ड, नील बराह, श्री हनुमान जी आदि दर्शनीय हैं।

मणिकर्णिका: इस स्थान पर विश्वनाथ भगवान श्री शंकर जी विराजमान हैं।

सेतुबन्ध कुण्ड : श्री कृष्ण ने यहाँ पर श्री राम के आवेश में गोपियों के कहने पर बन्दरों के द्वारा सेतु का निर्माण किया था। अभी भी इस सरोवर में सेतु बन्ध के भग्‍नावशेष दर्शनीय हैं। कुण्ड के उत्तर में रामेश्वर महादेव जी दर्शनीय हैं। जो श्री कृष्ण के द्वारा प्रतिष्ठित हुए थे। कुण्ड के दक्षिण में उस पार एक टीले के रूप में लंका पुरी भी दर्शनीय हैं।

गयाकुण्ड: गया तीर्थ भी ब्रज मण्डल के इस स्थान पर रहकर कृष्ण जी की अराधना करते हैं। इसमें अगस्त कुण्ड भी एक साथ मिले हुए हैं। गया कुण्ड के दक्षिणी घाट का नाम अगस्त घाट है।

लुकलुक कुण्ड : गोचारण करते समय कभी श्री कृष्ण अपने सखाओं के खेलते हुए छोड़कर कुछ समय के लिए एकान्त में इस परम रमणीय स्थान पर गोपियों से मिले, वे उन ब्रज रमणीयों के साथ यहाँ पर लुका-छिपी(आँख मिचौली) की क्रीड़ायें करने लगे। श्री कृष्ण जी निकट ही पर्वत की एक कन्दरा में छिप गये, जिसे लुक-लुक गुफ़ा कहते हैं। सखियाँ चारों ओर कृष्ण जी को खोजने लगीं जब श्री कृष्ण जी नहीं मिले तो वे चिन्तित हो गयीं और कृष्ण जी का ध्यान करने लगीं, जहाँ पर बैठकर सखियाँ ध्यान कर रही थीं, वह स्थल ध्यान कुण्ड कहलाता है।

चरण पहाड़ी : श्री कृष्ण लुकलुक गुफ़ा में प्रवेश कर पहाड़ी के ऊपर प्रकट होकर बंशी बजाने लगे जिसकी धुन सुनकर सखियों का ध्यान टूटा और वे सब दौड़कर श्यामसुन्दर से मिलने एकत्र हो गयीं। बंशी की धुन को सुनकर पर्वत के पिघल जाने के कारण उसमें श्री कृष्ण के चरण चिह्न और गाय, बछड़ों, सखाओं के चरण चिह्न अंकित हो गये जो आज पाँच हजार वर्ष बाद भी स्पष्ट रूप से दर्शनीय हैं।

विहल कुण्ड : चरण पहाड़ी के पास ही विहल कुण्ड और पंच सखा कुण्ड हैं। यहाँ पर श्रीकृष्ण की मुरली धुन को सुनकर सखियाँ प्रेम में विहल हो गयीं थीं। इसीलिए यह स्थान विहल कुण्ड के नाम से प्रसिद्ध हुआ। पंच सखा कुण्डों के नाम रंगीला, छबीला, जकीला, मटीला और दतीला कुण्ड है।

फ़िसलनी शिला: कलावता ग्राम के पास में इन्द्रसेन पर्वत पर फ़िसलनी शिला विद्यमान है। गोचारण करने के समय श्री कृष्ण सखाओं के साथ यहाँ फ़िसलने की क्रीड़ा करते थे। कभी कभी श्री राधा जी भी सखियों के साथ यहाँ लीलायें करती थीं।।

व्योमासुर गुफ़ा : श्री कृष्ण जी ने यहीं पर कंस के द्वारा भेजे गये व्योमासुर का वध किया था। जब श्री कृष्ण जी व्योमासुर का वध कर रहे थे उस समय पृथ्वी काँपने लगीं। बल्देव जी ने अपने चरणों से पृथ्वी को दबाकर शांत कर दिया था। उन के चरणों का चिह्न आज भी दर्शानीय है। मेधावी मुनि ने यहाँ श्री कृष्ण की अराधना की थी, अत: इसे मेधावी मुनि की कन्दरा भी कहते हैं।

भोजन थाली : व्योमासुर का वध करके श्री कृष्ण जी ने अपने सखाओं के साथ यहाँ भोजन किया था। भोजन करने के स्थान पर अभी भी थाली, कटोरा आदि के चिह्न विद्यमान हैं। यहीं पर कृष्ण कुण्ड, और बाजन शिला दर्शनीय है। श्री शंकराचार्य जी को कृष्ण जी की ग्वाल गोष्टी का दर्शन यहीं हुआ था।

काम सरोवर : नसमस्त ब्रज गोपिकाओं के सभी कार्य अपने प्यारे श्यामसुन्दर को रिझाने के लिए ही होते थे। उनका प्रत्येक क्षण श्री कृष्ण के सुख के लिए ही समर्पित था। वे तो दही भी यह सोचकर बिलोती थीं कि उसका माखन श्यामसुन्दर ग्रहण करेंगे, दही बेचने भी यही सोचकर जातीं थीं कि कृष्ण उनका मार्ग रोकेंगे। वे तो बस पलकें बिछाये इंतजार करतीं थीं कि श्याम सुन्दर हमारे यहाँ आयें और हमारी सेवा स्वीकार करें। श्याम सुन्दर सखियों की सभी कामनाओं का सम्मान करते हुए अपनी लीलाएं करते थे। इस सरोवर में स्नान करने से सभी मनोकामना पूर्ण होती हैं।

गोकुल चंद्रमाजी : बगोकुल चन्द्रमा जी का विग्रह महावन की एक क्षत्राणि को यमुना महारानी की रज में प्राप्त हुआ था। उसने इन ठाकुर जी को श्रीमहाप्रभु बल्लभाचार्य जी को सेवा-पूजा के लिये सौंप दिया था। आचार्य प्रभु ने अपने सेवक श्रीनारायण दास ब्रह्मचारी को इनकी सेवा पूजा का अधिकार दे दिया। श्री ब्रहमचारी जी के गोलोकवास के पश्चात् गोकुल चन्द्रमा जी की सेवा श्रीबल्लभकुली सम्प्रदाय द्वारा की जा रही है। यह वल्लभकुल सम्प्रदाय के पंचम पीठ का प्रमुख स्थान एवं गद्दी स्थान है।

सामरी खेरा: श्री कृष्ण की प्रिय सखी सामरी सखी का यह गाँव है। यहाँ गोपाल कुण्ड, सूर्य कुण्ड, गोपाल मन्दिर तथा बिहारी जी का मन्दिर है।

आदिबद्री: यह स्थान चारों ओर वृक्षों से तथा, पर्वत श्रेणियों से घिरा हुआ अत्यंत रमणीय स्थल है। यह ब्रज का उत्तराखंड कहलाता है। यहाँ के दृश्य और सौंदर्य को देखकर बद्रीधाम की अनुभूति होती है। यहाँ पर बद्रीनाथ धाम, तृप्‍ति कुण्ड, यमुनोत्री, गंगोत्री, लक्ष्मण झूला, बूढ़े बद्री, हरिद्वार, हर की पौड़ी आदि स्थित हैं।

केदारनाथ : यहाँ श्‍वेत पर्वत पर शिवजी एवं पार्वती जी युगल रूप में विराज रहे हैं। यह ब्रज का केदारनाथ है। पर्वत के नीचे गौरी कुण्ड है।

Image
Image
Image

गोकुल-महावन

कृष्ण जिनका नाम है गोकुल जिनका धाम है
ऐसे श्री भगवान को बारम्बार प्रणाम है॥

यह पवित्र स्थल मथुरा से 15 किमी की दूरी पर श्रीयमुनाजी के पार स्थित है। यह ब्रज का बड़ा ही महत्वपूर्ण स्थल है। यहीं रोहिणी जी ने श्री बलराम जी को जन्म दिया। बलराम जी देवकी जी के सातवे गर्भ में थे जिन्हें योगमाया ने कर्षित कर रोहिणी के गर्भ में डाल दिया था। मथुरा में कृष्ण जी के जन्म के पश्‍चात् कंस के सभी सैनिकों को निद्रा आ गयी थी एवं वासुदेव जी की बेड़ियाँ खुल गयी थी। तब वासुदेव जी श्री कृष्ण को गोकुल में नन्दराय जी के यहाँ छोड़ आये। श्री नन्दराय जी के घर लाला का जन्म हुआ है, धीरे धीरे यह बात समस्त गोकुल में फ़ैल गयी। सभी गोपगण, गोपियाँ, गोकुलवासी खुशियाँ मनाने लगे। सभी घर, गलियाँ चौक आदि सजाये जाने लगे एवं बधाइयाँ गायी जाने लगीं। श्री कृष्ण और बलराम जी का पालन पोषण यही हुआ एवं दोनों अपनी लीलाओं से सभी को मुग्ध करते रहे। जहाँ घुटनों के बल चलते हुए दोनों भाई को देखना गोकुलवासियों को सुख देता था तो वहीं माखन चुराकर श्री कृष्ण जी ब्रजगोपिकाओं के दुखों को हर लेते थे। गोपियाँ कृष्ण जी को छाछ का लालच देकर नचाती थीं तो कृष्ण जी बांसुरी की धुन से सभी को मंत्र मुग्ध कर देते थे। भगवान श्री कृष्ण ने गोकुल में रहते हुए पूतना, शकटासुर, तृणावर्त आदि असुरों को मोक्ष प्रदान किया।

गोकुल से आगे २ किमी. दूर महावन स्थित है। बहुत लोग इसे पुरानी गोकुल मानते हैं। यहाँ चौरासी खम्भों का मन्दिर, नन्देश्वर महादेव, मथुरा नाथ, द्वारिका नाथ आदि मन्दिर हैं।

Image

दर्शनीय स्थल

रावल: " ब्रज में सुन्दर रावल ग्रामा, जहाँ प्रकटि प्रिय पूर्व कामा" । यह स्थल श्री राधा जी की ननसार है। राधा जी के पिता श्री वृषभानु जी महारज यहाँ पूर्व में निवास करते थे। यहीं श्री राधिका जू का जन्म हुआ। बाद में उनकी माता कीर्ति के कहने पर वृषभानु जी बरसाना ले गये। यहाँ राधाष्टमी पर राधा रानी का जन्मोत्सव धूम धाम से मनाया जाता है।

दाऊजी: बल्देव को ही दाऊजी का गाँव कहा जाता है। इसका पुराना नाम रीढ़ा गाँव है। शेषावतार बलराम जी श्रीकृष्ण के बड़े भाई हैं। इन्हें ब्रज का राजा कहा जाता है। यहाँ श्री बलदेव जी का मन्दिर, दान बिहारी जी का मन्दिर रेवती कुण्ड और क्षीर सागर आदि दर्शनीय स्थल हैं।

ब्रह्माण्ड घाट : यह वही स्थल है जहाँ कृष्ण जी ने माटी खायी थी। और सभी ग्वाल वालों ने यशोदा मैया से उनकी शिकायत की। तो मैया ने लाला कन्हैया को डांटा और पूँछा- लाला तैने माटी खायी है।" तो लाला ने कहा "मैया मैंने माटी नाय खायी" तो मैया ने कहा अपनौ मूँह खोल के दिखा कि तैने माटी खायी या नाय खायी। जैसे ही कृष्णजी ने अपना मूँह खोला तो यशोदा माँ को उनके मुख में ब्रह्माण्ड, सारा ब्रज, सारा गोकुल नन्दबाबा, सभी ग्वालवाल एवं स्वयं के दर्शन हुए। एवं श्री कृष्ण जी ने यशोदा माँ को अपने विराट रूप के दर्शन कराये। तो मैया यह देख कर चकित हुई और मूर्छित हो गयीं। फ़िर लाला ने उनके इस दर्शन पर माया का पर्दा डाल दिया। अतः इस घाट का नाम ब्रह्माण्ड घाट पड़ गया। यह ब्रज धाम का स्वर्ग कहलाता है।

रमणरेती: गोकुल - महावन के मध्य यमुना किनारे स्थित यह एक रमणीक स्थान है। यहाँ रमण बिहारी जी का मन्दिर है। यह रसखान की तप स्थली रही है, उनकी यहाँ समाधि भी है। ठाकुर जी ने यहाँ ग्वाल वालों के साथ लीलायें की हैं एवं यहाँ की रज में लोट-पोट हुए हैं। "बालू रेती में लोट-पोट होए यशोदा मैया तेरौ ललना"।

लोहवन: मथुरा-गोकुल मार्ग पर यह वन स्थित है। श्री कृष्ण ने यहीं पर गोचारण करते समय लोहजंघासुर का वध किया था। इसीलिए इस वन का नाम लोहवन है। यहाँ कृष्ण कुण्ड, लोहासुर की गुफ़ा तथा श्री गोपीनाथ जी का दर्शन है।

Image
Image
Image

अन्य स्थल

बहुलावन : बहुलावन ब्रज के बारह वनों में एक है। श्री हरि की बहुला नाम की पत्‍नि हमेशा यहाँ विराजमान रहती हैं। बहुलावनकुण्ड में स्थित पद्मवन में स्नान पान करने वाले व्यक्ति को बहुत पुण्य प्राप्त होता है क्योंकि भगवान विष्णु लक्ष्मी जी सहित यहाँ निवास करते हैं। एक बार इस स्थान पर बहुला नामक एक गाय को शेर ने घेर लिया था। वह उसे मारना चाहता था लेकिन गाय ने शेर को आश्वादन दिया कि वह अपने बछड़े को दूध पिलाकर लौट आयेगी। इस पर विश्वास कर सिंह वहाँ खड़ा रहा। कुछ समय पश्चात जब गाय अपने बछड़े को दूध पिलाकर लौट आई तो शेर गाय के सत्यव्रत से बहुत प्रभावित हुआ, उसने गाय को छोड़ दिया। यहाँ बलराम कुण्ड एवं मानसरोवर कुण्ड दर्शनीय हैं।

तोषग्राम :यह श्री कृष्ण के प्रिय सखा तोष का गाँव है। तोष नामक गोप नृत्यकला में बहुत निपुण थे। श्री कृष्ण जी ने नृत्य की शिक्षा इन्हीं से प्राप्त की थी। यहाँ तोष कुण्ड है जिसके जल को पीकर ग्वालबाल, गौएँ, श्री कृष्ण-बलराम को बड़ा ही संतोष होता था। यहाँ गोपालजी तथा राधारमण जी की स्थलियाँ दर्शनीय हैं।

दतिहा:यहाँ श्री कृष्ण जी ने दन्तवक्र नामक असुर का वध किया था। यहाँ महादेव जी का एक चतुर्भुज विग्रह है।

गरुड़ गोविन्द :छटीकरा के पास ही गरुड़ गोविन्द जी का मन्दिर है। एक दिन श्री कृष्ण गोचारण करते हुए सखाओं के साथ यहाँ विभिन्न प्रकार की क्रीड़ाएं कर रह थे। उन्होंने श्रीदाम सखा को गरुड़ बनाया और उसकी पीठ पर स्वयं इस प्रकार बैठ गये जैसे मानो स्वयं लक्ष्मीपति नारायण गरुड़ की पीठ पर सवार हों। यहाँ पर गरुड़ बने हुए श्रीदाम तथा गोविन्द जी का दर्शन होता है।

जसुमती (जसौंदी):यह श्रीराधाकुण्ड-वृन्दावन मार्ग पर स्थित है। श्री कृष्ण की सखी जसुमती ने यहाँ सूर्य भगवान की उपासना की थी। यहाँ सूर्य कुण्ड दर्शनीय है।

बसोंति(बसति) :यह श्री कृष्ण की सखी बसुमति का स्थान है। उसने बसंत पंचमी को भगवान की अराधना की थी। यहाँ बसन्त कुण्ड एवं कदम्ब खण्डी है।

ऐंचादाउजी :एक बार बलराम जी श्री कृष्ण जी के कहने पर द्वारिका से ब्रज में अपने मैया और बाबा से मिलने आये। इसके पश्‍चात उनके मन में महारास की इच्छा प्रकट हूई तो उन्होंने सभी सखियों को इस स्थल पर बुलाया। लेकिन यमुना जी नहीं आयीं क्योंकि बलराम जी उनके जेठ लगते थे। तो बलराम जी यमुना जी को अपने हल से खींचकर यहाँ लाये। तभी से इस स्थान पर यमुना उल्टी बह रहीं हैं। यमुना जी को हल से खींच कर लाने के कारण ही इसका नाम ऐंचा दाऊजी पड़ गया।

अक्षय वट:जब ब्रज में महारास हो रहा था तो सभी देवताओं ने इसे देखने की इच्छा प्रकट की। भगवान श्री कृष्ण जी ने उन्हें इस वृक्ष पर विराजमान होकर रास देखने को कहा। अतः सभी देवता अपने लोकों से रास देखने के लिये इसी वृक्ष पर विराजमान होते हैं। यह अक्षय वट कृष्णकालीन है एवं सदैव हरा भरा रहता है। इसे भाण्डीरवट भी कहते हैं। यहाँ पर बल्देव जी ने प्रलम्बासुर का वध किया था।

चीरघाट:सभी गोपियाँ मार्गशीर्ष माह में भगवान श्री कृष्ण को वर रूप में पाने के लिये कात्यायनी देवी जी का व्रत रखती थीं एवं यमुना में स्नान करती थी। एक बार कृष्ण जी ने उनके वस्त्र हरण कर लिये एवं कदम्ब के वृक्ष पर चढ़ गये। तब सभी गोपियों ने भगवान श्री कृष्ण से उनके वस्त्र लौटाने को कहा। तब भगवान श्री कृष्ण जी ने उनको यह शिक्षा दी कि नदी में वरुण देवता का निवास होता है अतः नदी में निर्वस्त्र होकर स्नान नहीं करना चाहिये इससे वरुण देवता का अपमान होता है।

भाण्डीरवन:गर्ग संहिता के अनुसार एक बार नन्दबाबा कन्हैया को लेकर शाम के समय भ्रमण पर जा रहे थे, रास्ते में अंधेरा होने पर कन्हैया रोने लगे। बाबा ने उनको चुप कराने की बहुत कोशिश की, तब तक अंधेरा और घना हो चुका था, फ़िर बाबा श्रीराधाजी का स्मरण करने लगे तो श्री जी अपने पूर्ण रूप से प्रकट हुई, बाबा ने लाला को श्री जी की गोदी में दे दिया और श्री जी की स्तुति के बाद वहां से चले आये। उनके जाने के बाद भगवान अपने किशोर रूप में आ गये, ब्रह्मा जी ने दोनों का विवाह् सम्पन्न कराया।

मांट गाँव :मांट शब्द का अर्थ दधि मंथन आदि के लिए मिट्टी से निर्मित बड़े-बड़े पात्रों से है। यह स्थल मांटों (मटका) के निर्माण का केन्द्र था। यमुना किनारे स्थित मांटवन ब्रज का प्रमुख सघन वन था।

मानसरोवर :एक बार श्री राधा रानी भगवान श्री कृष्ण जी से रूठ कर यहाँ विराजी थीं। यहाँ उनके नेत्रों के ही दर्शन होते हैं। यहाँ पर दो कुण्ड हैं मान कुण्ड और कृष्ण कुण्ड। मान कुण्ड श्री राधा रानी जी के नयनों से प्रवाहित अश्रुओं से बना है। यह स्थान श्री हित हरिवंश जी को अत्यन्त प्रिय था और वे यहाँ प्रतिदिन आते थे।

कुश स्थली (कोसी):यह नन्दराय जी की कोष स्थली है। इसी स्थल को ब्रज की द्वारिका पुरी कहते हैं। यहाँ पर रत्‍नाकर सागर, माया कुण्ड तथा गोमती कुण्ड है।

बेलवन:श्रीलक्ष्मी जी ने वृन्दावन में महारास देखने की अभिलाषा प्रकट की। लेकिन उन्हें महारास में प्रवेश नहीं दिया गया। वह आज भी इस स्थल पर वृन्दावन में महारास देखने के लिये तपस्या कर रही हैं। यहाँ पर पौष मास के प्रत्येक गुरुवार को मेला लगता है।

फ़ालेन: यह भक्त प्रह्‍लाद की जन्मस्थली है।

कामई: यह अष्ट सखियों में प्रमुख विशखा सखी जी का जन्मस्थान है।

खेलनवन :यहाँ गोचारण के समय श्री कृष्ण-बलराम सखाओं के साथ विभिन्न प्रकार के खेल खेलते थे। श्री राधा जी भी यहाँ अपनी सखियों के साथ खेलने आतीं थीं, इन्हीं सब कारणों से इस स्थान का नाम खेलनवन पड़ा।

बिहारवन :यहाँ पर श्री बिहारी जी के दर्शन और बिहार कुण्ड है। यहाँ पर रासबिहारी श्री कृष्ण ने राधिका जी सहित गोपियों के साथ रासविहार किया एवं अनेक लीला-विलास किए थे। श्री यमुना जी के पास यह एक सघन रमणीय वन है। यहाँ के गौशाला में आज भी कृष्णकालीन गौवंश के दर्शन होते हैं।

कोकिलावन :एक बार श्री कृष्ण ने कोयल के स्वर में कूह-कूह की ध्वनि से सारे वन को गुंजायमान कर दिया। कूह-कूह की धुन को श्री राधा जी ने पहचान लिया कि ये श्री कॄष्ण जी आवाज निकाल रहे हैं। ध्वनि को सुनकर श्री राधा जी विशाखा सखी के साथ यहाँ आईं, इधर अन्य सखियाँ भी प्राण-प्रियतम को खोजते हुए पहुँच गयीं। यह श्रीराधा-कृष्ण के मिलन की भूमि कृष्ण जी द्वारा कोयल की आवाज निकालने के कारण कोकिला वन कहलाई। यहाँ शनि देव जी का मन्दिर है।

खादिरवन :यह ब्रज के १२ वनों में से एक है। यहाँ श्री कृष्ण-बलराम सखाओं के साथ तर-तरह की लीलाएं करते थे। यहाँ पर खजूर के बहुत वृक्ष थे। यहाँ पर श्री कृष्ण गोचारण के समय सभी सखाओं के साथ पके हुए खजूर खाते थे। श्री कृष्ण जी ने यहाँ वकासुर नामक असुर का वध किया था।